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________________ विषय खंड आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य और उसकी विशेषताएँ ११९ १८. लोकभाषाओं की सम्पन्नता: इस साहित्य का श्रृंगार है लोक-चित्रण, सेवा और दया । औदार्य इन कवियों का स्वाभाविक गुण था । विश्वशांति की वर्तमान ज्वलंत-समस्याएं ( Burning Problems ) की ओर ये प्रारंभ से ही उपदेश देते थे। लोक ही उनका क्षेत्र था। अतः उस साहित्य में लोकसंस्कृति, भाषा और साहित्य के उन्नयन के प्रमुख तत्व हैं । हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के इतिहास के उलझे प्रश्नों को भी उन कृतियों से सुलझाया जा सकता है । तथा विश्वजनीन जीवनमूल तत्वों का प्रेरक उस साहित्य को कहा जा सकता है । १९. कथारूढियों और परंपराओं (cycles) की मौलिकता - ___ इन प्रतियों में उपलब्ध कथाओं की परपराएं और कथारूढियां भी अपने ही प्रकार से वर्णित हुई हैं। इन परंपराओं में भी प्राकृत, अपभ्रंश आदि से अलग अपने ही प्रकार की मौलिकता है। कथाओं और उनकी रूढियों में परंपरा का निर्वाह मिलते हुये भी उनके पात्रों, कथानकों, वर्णनपद्धतियों, उद्देश्यों आदि में एक अपने ही प्रकार का चित्रण है। २०. रसराजः शान्त : अन्य रसों के वर्णन के साथ जैन कवियों ने श्रृंगार के स्थान पर शान्त को ही रसराज माना है। यद्यपि इस साहित्य में करुण, वीर, श्रृंगार आदि सभी रसों की सफल निस्पत्ति की है । उदाहरणार्थ 'भरतेश्वर बाहुबली रास' वीररस की सफलकृति है। और 'नेमिनाथ चतुस्पदिका' में राजुल के आंसू करुण रस की उत्कृष्ट निस्पत्ति के प्रतीक हैं । परन्तु फिर भी ये रस शांतकी क्रोड़ में ही पलते हैं । शांत या निर्वेद इन कृतियों की समाप्ति पर अपने साधारणीकरण की छाप पाठक और श्रोता सब पर छोड़ देता है । अधिकांशतः प्रधान रूप से इसी रस को इन काव्यकारों ने निष्पन्न किया है । अर्थात्: जैन विद्वानों ने शृंगार के रसराजत्व को गौण और शांत के रसराजत्व को प्रमुख मान्यता दी है । विश्वशांति के उपायों का सुन्दर हल, मातृत्व, सौहार्द तथा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की सारी योजनाएं इनकी. मुख्य संवेदना में देखी जा सकती हैं । २१. शैलीगत मौलिकता: इन कृतियों के वर्णन में विचित्र एवं अपने ही प्रकार की शैली के दर्शन होते हैं । वर्णन में विशालता के साथ पर्याप्त वैज्ञानिकता दिखाई देती है। वर्णन कहीं भी शिथिल नहीं है। यहां तक की जहां कवि धर्म के सिद्धान्तों का उपदेश देता है वहां भी उसमें साहित्यिक सरसता बनी रहती है । लौकिक, अलौकिक आदि लगभग सभी क्षेत्रों को इन जैन कवियों ने अपना वर्ण्य विषय बनाया है और अपनी शैली में ढाला है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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