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विषय खंड
आदिकाल का हिन्दी जैन साहित्य और उसकी विशेषताएँ
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अतिरिक्त भी इस साहित्य की जो छोटी-मोटी अनेक विशेषताएँ और मुख्य प्रवृत्तियां हैं उनका विवेचन हम इस प्रकार कर सकते हैं :१२. विश्वसनीय साहित्य :
ये प्रतियां विश्वसनीय तथा प्रामाणिक हैं । क्योंकि ये जैन भंडारों में पूर्णतया सुरक्षित थीं। तथा आक्रमणकारियों ने राजस्थान के जैन भंडारों को बहुत कम प्रभावित किया है । वे इन प्रच्छन्न भंडारों को, सच तो यह है कि, प्राप्त ही नहीं कर सके । हिन्दी प्रदेश के अन्य प्रान्तों में अनेक प्रतियां आक्रमणकारियों ने नष्ट करदी। क्योंकि आदिकालीन प्रतियां अवधी, विदर्भ, भोजपुरी, ब्रज आदि विभाषाओं में बिलकुल नहीं मिलती हैं । राजस्थान और गुजरात के भंडार ही इसे ज्यों का त्यों सुरक्षित रख सके हैं । जैनमुनियों का अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन तथा लेखन ही व्यसन था । अतः ये प्रतियां प्रामाणिक और पूर्ण विश्वसनीय हैं । तथा इनकी हस्तलिखित प्रतियां भी तत्कालीन उपलब्ध जैनेतर साहित्य की प्रतियों और प्रतिलिपियों से प्राचीनतम हैं।
१३. तत्कालीन स्थितियों का इतिहास:
इस साहित्य की कृतियां तत्कालीन समय का इतिहास प्रस्तुत कर सकती हैं । आदिकालीन आचारविचार, समाज, धर्म, राजनीति की सही स्थितियां पर प्रकाश डालने में ये कृतियां पूर्ण सक्षम हैं । ये प्रामाणिक तथ्य और घटनाओं के यथार्थ चित्रण में योग देती हैं । अतः इतिहासकारों को आदिकाल के इतिहास लिखने में भी ये पूर्ण सहायता करेंगी । और क्योंकि इनमें वर्णित साहित्य जनता का साहित्य है; अतः इसमें जीवन के स्वच्छ और यथार्थ दृष्टिकोण व चित्रण को अपनाया गया है। तत्कालीन विद्वानों की मान्यताएं और कविगत सत्यों का भी अध्ययन इन्हीं के माध्यम से किया जा सकता है।
१४. केवल धार्मिकता नहीं :
इन रचनाओं में केवल धार्मिकता ही नहीं । इन में साहित्यिकता की अजस्र शैवालिनी सर्वत्र एक ही गति से प्रवहमान है । इसमें चरितनायकों की स्तुतियों की संक्षिप्तता से लेकर प्रबंधकाव्यों तक का विस्तार है। उपलब्ध रचनाओं में अद्यावधि यद्यपि कोई महाकाव्य नहीं मिला है, तथापि प्राप्त प्रबंधकाव्यों में महाकाव्यों का भी वहन करने की अपार क्षमता है। यह संभव है कि कालान्तर में शोध करने पर कुछ महाकाव्य भी प्राप्त हों । क्योंकि जैनकवियों द्वारा लिखे अपभ्रंश में कई महाकाव्य उपलब्ध हुए हैं और ये कृतियां अपभ्रश की उत्तर स्थिति की उपज हैं।
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