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विषय खंड
श्री नमस्कार महामंत्र
होता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व रूप भयंकर रोग से आक्रान्त प्राणियों को भाववैद्य आचार्य महाराज सम्यक्त्व रूप औषध धर्मरूप (जिन वचन रूप) धारोष्ण दूध में मिला कर देते हैं। राग द्वेष क्रोध मान माया और लोभ से बचने रूप पथ्य
खला कर उन्हें कर्म रूप रोग से मुक्त करते-करवाते है। कर्मों के आवरण से आवरितसांसारिक प्राणियों को जिन वीतराग भाषित तत्व रूप दीपक देकर सन्मार्गगामी बनाते हैं । जीवन में जहाँ कटुता, कलह, कंकास, विकार, ईर्ष्या द्रोहादि घुस कर महानतम अनर्थों का जाल फैलाते हैं । वहाँ आचार्य महाराज इन विचारों के द्वारा उत्पन्न अशान्ति की ज्वाला को वीतराग प्रकाशित तत्वौषध देकर शान्त करते हैं । ऐसे जिनेन्द्र वचनानुसार चारित्र धर्म के पालक सद्धर्म के निर्भय वक्ता, समयज्ञ एवं स्व-पर समय निपुण आचार्य को श्री गच्छाचार पयन्नामें तीर्थंकर की उपमा दी गई है
'तित्थयर समो सूरि, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ' याने जो आचार्य भले प्रकार से जिनेन्द्रधर्म की प्ररूपणा करता है, वह तीर्थकर के समान है। श्री महानिशीथ सूत्र के पांचवे अध्ययन में इसी आशय का कथन आया है कि
" से भयवं ? किं तित्थयर संतियं आणं नाइक्कमिजा उदाहु आयरिय संतियं ? गोयमा ? चउविहा आयरिया भवन्ति, तं जहा-नामायरिया, ठवणायरिया, दवायरिया, भावायरिया तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयर समाचेव दट्ठव्वा, तेसिं संतिय आणं नाइक्कमेज्ज ति"
__ हे भगवन् ? तीर्थकर सम्बन्धी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता कि आचार्य सम्बंधि ? गौतम ? नामाचार्य, स्थापनाचार्य, द्रव्याचार्य और भावाचार्य इस प्रकार चार प्रकार के आचार्य कहे हैं। उनमें से भावाचार्य तीर्थकर समान होने से उनकी आशा का कदापि उलंघन नहीं करना । ____ इस प्रकार आचार्य शासन के आधार स्तम्भ एवं परम माननीय हैं । आचार्य महाराज के छत्तीस गुण शास्त्रों में इस प्रकार आये हैं
पंचिंदिय-संवरणो, तह नवविह बम्भचेर गुत्तिधरो । चउविह कसाय मुक्को, इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायार पालण समत्थो ।
पंच समिओ ति गुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ॥२॥ पांचों इन्द्रियों को वश में रखने वाले अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय, और श्रोत्रेन्द्रिय इन पांचों को २३ विकारों से संवृत करने वाले, नवप्रकार की ब्रह्मचर्य -गृप्ती के धारक । चारों कषायों से मुक्त । इन अठारह गुणों से युक्त तथा सर्वतः प्राणातिपात विरमण, सवर्तः मृषावाद विरमण, सर्वतः अदत्तादान विरमण,
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