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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ
विविध
अथवा जो मुक्ति रूप महल के उच्च भाग पर जा चुके हैं, या जो प्रख्यात हैं, शास्ता हैं, कृतकृत्य हैं वे सिद्ध मुझे मंगलकारी हों ।
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जिन्हों ने संसार भ्रमण मूलक समस्त कर्मों को पराजित कर दिये हैं । जो मोक्ष को प्राप्त हो गये हैं, जिन का पुनर्जन्म नहीं होता उनको सिध्द कहे गये है। ऐसे सिद्ध भगवान नमस्कार मन्त्र के द्वितीय पद पर विराजित हैं । श्री आवश्यक निर्युक्ति में ग्यारह प्रकार के सिद्ध इस प्रकार गिनाए हैं—
कम्म सिप्पे य विज्जाए, मन्ते जोगे य आगमे । अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ॥
१ कर्म सिध्द, २ शिल्प सिध्द, ३ विद्या सिध्द, ४ मन्त्र सिध्द, ५ योग सिध्द, ६ आगम सिध्द, ७ अर्थ सिध्द, ८ यात्रा सिध्द, ९ अभिप्राय सिध्द, १० तप सिध्द, और ११ कर्मक्षय सिध्द । इन सब सिध्दों में से यहाँ कर्म क्षय सिद्ध ही लिये गये हैं । न कि कर्मसिद्धादि अन्य । सिद्ध भगवान ज्ञानावरणीयादि चार घनघाति और आयु आदि चार अघनघति कर्मों का सर्वथा क्षय करके सम्पूर्ण रूपेण मुक्तात्मा हैं । उनके आठ गुण इस प्रकार हैं
नाणं च दसणं चिय अव्वाबाह तहेव सम्मतं । अक्खय for अरुवी अगुरुलहुवीरियं हवइ ॥
१ अनन्तज्ञान :- ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय होने पर आत्मा को केवल ज्ञान प्राप्त होता है। जिससे वह संसार के समस्त चराचर पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जान सकता है। जो अप्रतिपातिज्ञान भी कहलाता है ।
२ अनन्तदर्शन :- पांचों प्रकृतियों सहित दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होने पर आत्मा को केवल दर्शन प्राप्त होता है । जिससे वह लोक के समस्त पदार्थों को देख सकता है ।
३ अनन्त अव्याबाध सुख : - वेदनीय कर्म का सर्वथैव प्रकारेण क्षय होने से आत्मा अनिर्वचनीय अनन्त सुख प्राप्त करती है। उसे अनन्त अन्याबाध सुख कहा जाता है । याने जो सुख पौद्गलिक संयोग से मिलता है, उसको संयोगिक सुख का है 1 इस में किसी न किसी प्रकार की विघ्न परम्परा का आना हो शकता है । किन्तु जो सुख पौद्गलिक संयोग के बिना प्राप्त हुवा है । उसमें कदापि किसी प्रकार के विघ्नों का आना संभव ही नहीं होने से वह अनन्त अव्याबाध सुख कहा जाता है ।
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४ अनन्त चारित्र : - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ( जो कि आत्मा के तत्वश्रध्दान गुण और वीतरागत्व प्राप्ति में विघ्नरूप हैं ) के क्षय होने पर आत्मा
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