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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
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से ही नई चीजों का निर्माण होता है। जिस जमाने में जिस ढंग से जनसाधारण बातों को जल्दी समझ सके और अपनावें उसी ढंग से सिद्धान्तों को प्रति मध्यस्थदृष्टि रखकर पुराने को ही नई प्रणाली में ढालकर जनता के सन्मुख रखना; यही क्रम प्रत्येक शताद्वी में होता चला आया है, और उसी के फल स्वरूप आज हम युग युग के साहित्य का दर्शन कर रहे है । बस, इस से यह कहने की आवश्यकता ही नही है कि पुराना साहित्य ही नयारूप लेकर जन जन तक आता है।
" प्रत्येक समाज आज प्रगति की ओर प्रयाण करता जा रहा है, पर हमारा समाज ही एक ऐसा समाज है उन्नति के स्थान पर अवनति की ओर जा रहा है। विचार करने पर उसके परिणाम में अन्य समाज कि अपेक्षा जैन समाज पर लगे कुछ सामाजिक प्रतिबन्ध भी कारणभूत हो सकते है। अन्य समाज में आज पुनर्लग्न, विधवाविवाह आदिका कोई बन्धन नहीं है, जब हमारे यहाँ इस के लिये कडक प्रतिबन्ध है। ऐसे प्रतिबन्धों के कारण आज कितनी बालविधवा बहने अपने आपको दुःखी बना रही हैं और उसी के कारण आज गर्भपात जैसे निकृष्ट कृत्य भी बढते जा रहे है, ऐसे प्रतिबन्ध हमारे मन्तव्य से नहीं होना चाहिये।"
-वर्तमान मन्तव्य समाजउत्थान के मार्गों को आज का विज्ञानी दिमाग किस प्रकार खोज निकालता है, उस का यह भी एक नमुना है। हमारे शास्त्रों में एक नहीं अनेक ऐसे प्रमाण हैं जो उपर्युक्त प्रवृत्ति के लिये मनाई करते हैं । जिन के कुछ प्रमाण उपयुक्त होने से यहाँ दिये जा रहे हैं। कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रार्यजी कहते हैं कि
सकृजल्पन्ति राजान, सकृज्जल्पन्ति साधवः ।
सकृत् कन्या : प्रदीयन्ते, त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।। -राजालोग हमेशां एक ही वक्त वचनोच्चार करते हैं, संत और तपस्वी मुनि जन एक ही वक्त बोलते हैं और कन्यारत्न भी एक वक्त ही दिये जाते हैं । ये तीनों कार्य एक वक्त ही किये जाते है ।
उपर के प्रमाण से यह भलिभाँति समझ सकते हैं कि समाज के कर्णधार और दुषमकालमें सर्वश जैसे आचार्यवर्य भी कहते हैं कि एक से दूसरी वक्त कन्या का आदान प्रदान नहीं होता ।
श्रीमन् सिद्धर्षिगणिजी महाराज अपने श्रीचन्दकेवली चरित्र के चतुर्थाध्ययन की ४६२ वीं गाथा में लिखते हैं कि- .
काप्रस्थाली सकृद् वह्नौ, कणिकायां जलं सकृत् । सज्जनानां सकृत् वाक्यं, स्त्रीणामुपयमः सकृत् ॥
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