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स्याहाद की सैद्धान्तिकता लेखिका--जैन सिद्धान्ताचार्या-महासती कौशल्या कंवर
"जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ" । मानवको यदि सत्य पाना है तो गहरा गोता लगाये विना प्राप्त नहीं हो सकता । एक बार उसी सत्य का असत्य होना
और असत्य का सत्य बनना मानव को और भी चक्रमें डाल देता हैं । एक संखिया को ही लीजिए। सम्पूर्णविश्व उसे मारक मानता है तो वैद्य उसी वस्तु का भयंकर से भयंभर रोगों के निवारण में उपयोग करता है । उस समय वही मारक संखिया उद्धारक रूप बन जाता है । ऐसे समय कितनेक बुद्धिजीवि प्राणी भी उब कर कह उठते हैं
कोई कहै कछु है नहीं, कोई कहै कछु है ।
'है और नहीं' के बीच में, जो कुछ है सो है । . ऐसी धारणावाले सत्य पा नहीं सकते । जो गहरा चिन्तक होगा, वही ठीक सत्य को पा सकता है । वरन् शंकराचार्य जैसे भी स्याद्वाद के रहस्य को नहीं समझने के कारण उसमें अनेक दोष ही अपनी मन:कल्पना से उपस्थित कर लेते हैं।
आज का युग समन्वयवादी है । वह सभी वस्तुओं को जानने की चेष्टा करता है और इसी चिन्तन के बूते पर. आजके अनेकों जैनैतर विद्वान् भी स्यद्वाद के अमूल्य तत्त्व की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं।
. गांधीजी ने लिखा है-" जिस प्रकार मैं स्याद्वाद को जानता हूँ, उसी प्रकार मानता हूँ । मुझे यह अनेकान्त बड़ा प्रिय है" । - श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदायाचार्य पं. स्वामी राममिश्रजी शास्त्री ने लिखा है-“स्याद्वाद जैन धर्मका एक अभेद्य किला है । जिसके अन्दर प्रतिवादियों के मायामय गोले प्रवेश नहीं कर सकते ।" " प्रो. हर्मन जेकोबी ने लिखा है- “जैन धर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्व ज्ञान और धार्मिक पद्वतियों के अभ्यासियों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । इस स्यायद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।"
डा थामस के भी विचार या. उद्गार बड़े महत्त्वपूर्ण हैं - " न्यायशास्त्र में जैन न्याय का स्थान बहुत ऊँचा है । स्याद्वाद का स्थान बड़ा गम्भीर है । वह वस्तुओं की भिन्न भिन्न परिस्थितियों पर अच्छा प्रकाश डालता है"।
भारत के निष्पक्ष आलोचक पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो यहां तक कह डाला है कि-"प्राचीन काल के हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े बड़े शास्त्री तक अब भी यह नहीं जानते कि जैनियों का स्याद्वाद किस चिड़िया का नाम है"। अस्तु ।
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