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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
दूसरे शरीरमें जाने पर उसके परिमाण में परिवर्तन हो जाता है। पुनः कर्मफलक संबंध में न्यायदर्शन कर्मके साथ फलका योग करनेके लिये ईश्वर को स्वीकार करता है । अर्थात् उसकी मान्यता के अनुसार कर्मफलके विषयमें कर्मके अतिरिक्त कर्मफलनियंता एक ईश्वर और है । जबकि जैन दर्शन तो, कर्म ही स्वयं अपने फलका उत्पादने करता है, ऐसा कहता है।
भारतवर्षमें पृथक् पृथक् विचारभेदोमें प्रबर्तित प्रत्येक धर्मका समावेश उपरोक्त छ दर्शनोंमे हो जाता है । इन छ दर्शनोंमें जैन दर्शनके सिद्धांत आत्मस्वरूपका बोध करवानेमें इतर दर्शनोंकी श्रेणीमें कितने उच्च कोटिका है, यह उपरोक्त विवरण पढने पर प्रत्येक को अपने आप समझमें आ जायगा। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जैन धर्मको हिन्दू धर्मकी शाखा स्वरूप स्वीकार करनेवाला जैनदर्शन के तत्त्वशानसे अनभिज्ञ ही है, ऐसा कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं है । स्याद्वाद, देव-गुरु-धर्मका स्वरूप, कर्मस्वरूप ईत्यादि जैन धर्मके अन्य कितने महत्त्वपूर्ण सिद्धांतके आधार पर समझमें आजायेगा कि जैन धर्मको हिन्दुधर्मकी शाखा स्वरूप गिनने में जन धर्मके उच्च कोटिके तथा महत्वपूर्ण तत्वोंका नाश करनेका भारी दुष्कृत्य है ।
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