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________________ श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ विविध - प्राप्त होना है वह इसकी अपेक्षा भी अधिक निस्सार हो तो वह तनिक भी वांछनीय नहीं है, ऐसा कहना पडेगा। कहनेका अभिप्राय यह है कि बौद्धदर्शनका यह अनात्मवाद सामान्य जनको संतोष नहीं दे सकता है । अतः इन मुख्य अंगोंपर हि बौद्ध दर्शनमें तथा जैन देश में बडा भेद है। वौद्ध मत शून्यसे ही आलिंगित रहता है, जबकि जैन बहुतसे पदार्थ मानते है । बौद्धमतमें आत्मा का अस्तित्व नहीं, परमाणुका अस्तित्व नहीं तथा ईश्वर भी नहीं । जैन मतमें इन सबकी सत्ता स्वीकार की गई है। बौद्धमतके अनुसार निर्वाण-प्राप्ति अर्थात् शून्यमें विलीनीकरण, परन्तु जनमतमें मुक्त जीव अनंतज्ञान-दर्शन चारित्रमय तथा आनंदमय माने गये हैं। बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शनमें कर्म भी भिन्न अर्थोमें प्रयुक्त होते हैं। जैन तथा वेदान्त आत्मा सत्य है तथा जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करती है, सुख-दुःख भोगती है, परन्तु वस्तुतः वह एक असीम सत्ता है। ज्ञान तथा आनंदके संबंध यह असीम तथा अनन्त है । वेदान्तदर्शनका यह मूल प्रतिपाद्य विषय है। अनः आत्माके असीमत्व तथा अनंतत्वको स्वीकार करने में वेदान्तदर्शन तथा जनदर्शन दोनों निर्विरोधी हैं । बौद्धदर्शनके अनात्मवादको स्वीकार न करनेमें और आत्माकी अनंत सत्ताकी उद्घोषण करनेमें जैन तथा वेदान्त समान मान्यतावाले हैं। फिर भी इन दोनों दर्शनोंमे भिन्नता है। क्योंकि वेदान्त जीवात्माकी सत्ता स्वीकार करने तक ही सीमित नहीं रहता है । वह तो एक कदम और आगे बढ़ता है और स्पष्टतया कहता है कि जीवात्माओंके बीचमें कोई भेद नहीं है । वेदान्त मतके अनुसार यह चिन्मय विश्व एक अद्वितीय सत्ताका बिकास मात्र है । वेदान्तका “एकमेवाद्वितीयम्" का वाद अति गम्भीर तथा मजबूत है । सामान्य मानवीय जीवात्मा एक सत्ता है। इतना अनुभव कर सकता है, परन्तु मानव मानव के बीच कोई भेद नहीं है तथा अन्य प्रकारसे दृष्टिगत पदार्थोमें किसी प्रकारका भेद नहीं है, ऐसी बातों का विचार करें तब तो बुधिपर पाला ही पड जाता है । अतः यह बात जनदर्शक स्वीकार करनेके योग्य नहीं है। और इसीसे जैनदर्शन तथा वेदान्त दर्शनकी मान्यतामें यहाँ भिन्नता उपस्थित हो जाती है। जैन और सांख्य सांख्य भी आत्माका अनादिपन तथा अनंतपन स्वीकार करते है। विजातीय पदार्थके सम्बन्धसे आत्माको अलग करनेको वे मोक्ष मानते है। प्राकृतिक रुपसे स्वाधीन आत्मा के साथ संलग्न एक विजातीय पदार्थका अस्तित्व उन्हें स्वीकार्य है। वेदान्तके अद्वैतवादको न मानने में भी सांख्य दर्शन की जैन दर्शन के साथ समानता है । तथा सांख्य दर्शन जीवसे अलग अजीव तत्त्व और स्वीकार करता है । इस प्रकार जैन दर्शन के साथ कई दृष्टिकोनेसे उसका सादृश्य होने पर भी अन्दर भारी भेद है । उदाहरणार्थ सांख्य दर्शनने अजीव तत्त्वके अर्थमें केवल एक प्रकृति Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012074
Book TitleYatindrasuri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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