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________________ ६४ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व जैन समाज की सामान्यतया यह प्रथा रही है कि जिस स्थान पर किसी प्रतिष्ठित श्रमण का स्वर्गारोहण होता है, वहां श्रमणोपासकों द्वारा उनका स्मारक बनाया जाता है अथवा चरण-चिह्न स्थापित किये जाते हैं, किन्तु कवि के भक्तों ने अहमदाबाद में उनका स्मारक बनाया हो अथवा उनके चरण-चिह्न स्थापित किये हों, ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिल पाये हैं। बीकानेर के निकटवर्ती नाल क्षेत्र में कवि का जो चरण-चिह्न स्थापित है, उसका उल्लेख तो वादी हर्षनन्दन ने भी किया है। जैसलमेर में भी कवि का चरण-प्रतीक जैन उपाश्रय/मंदिर में प्रतिष्ठापित है। लेखक ने स्वयं इन दोनों चरण-चिह्नों के दर्शन किये हैं। १८. शिष्य-परिवार ___ कविप्रवर समयसुन्दर एक प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में ओजस्विता के साथ प्रखर वैदुष्य भी था। उन्होंने देश के अनेक अंचलों में भ्रमण किया तथा उपदेश भी दिये। कवि का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि जो उनके निकट आता था, वह उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो जाता था। मण्डोवर, मेड़ता आदि के अधिपति भी आपके आत्मबल, बुद्धि-बल, तपोबल और चारित्र-बल से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इनके अतिरिक्त कवि की प्रतिभा का जिन राज्याधिपतियों पर प्रभाव रहा, उनका संकेत हम पूर्व में कर आए हैं। कतिपय व्यक्ति ऐसे भी थे, जिन्होंने कवि से भगवती प्रव्रज्या अंगीकार की और उनके प्रति पूर्ण समर्पित हो गये। वे व्यक्ति कवि के शिष्य थे। यद्यपि कवि ने अपने एक गीत में अपने आराध्य-गुरु जिनकुशलसूरि से दो शिष्यों की याचना की है - दादा जी दीजइ दो चेला। एक भणइ, एक करइ वैयावच्च, सेवक होत सोहेला॥ किन्तु एक गीत में उन्होंने अपनी आत्म-पीड़ा व्यक्ति की है। उसमें यह संकेत मिलता है कि उनके बहुत से शिष्य थे चेला नहीं तउ म करउ चिन्ता, दीसइ घणे चेले पण दुक्ख। संतान करंमि हुआ शिष्य बहुला, पणि समयसुन्दर न पायउ सुक्ख। के ई मुया गया पणि के ई, के ई जूया रहइ पर देश। पासि रहइ ते पीड़ न जाणई, कहियइ घणउ तउ थायइ किलेस। श्री अगरचन्द नाहटा एवं श्री भंवरलाल नाहटा का कथन है कि एक प्राचीनपत्र के अनुसार इनके शिष्यों की संख्या बयालीस थी; परन्तु के बयालीस शिष्य कौन थे, उनका नामोल्लेख नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में कवि के साहित्य में निर्दिष्ट शिष्य-प्रशिष्यों के नामों के आधार पर ही उनके शिष्य-वर्ग का प्रस्तुतिकरण समीचीन होगा। प्राप्त १. श्रीसमयसुन्दराणां गडालये पादुके वन्दे। - उत्तराध्ययनसूत्र टीका (प्रारम्भ में) २. सीताराम-चौपाई, भूमिका, पृष्ठ ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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