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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
कविवर्य समयसुन्दर ने फुटकर रचनाएँ कितनी रची थीं, इसकी कोई सीमा नहीं है । जिस किसी भी प्राचीन ज्ञानभण्डार में उनकी रचनाएँ खोजने जाएँ, वहीं उनकी रचनाएं मिल जाती हैं। लगभग ५०० फुटकर रचनाओं का परिचयात्मक विवरण हम दे ही चुके हैं।
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काव्य-लोक में कवि ही एकमात्र प्रजापति होता है। 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि' की उक्ति कवि समयसुन्दर के साथ चरितार्थ होती है । साहित्य की विपुलता एवं विस्तार की दृष्टि से कविवर समयसुन्दर 'साहित्य-सम्राट' की उपाधि के योग्य हैं । उनका वास्तविक मूल्य उनकी विविधता और सर्वदेशीयता में निहित है। उन्होंने काव्य, व्याकरण, न्याय, संग्रह - कोश, दर्शन, चरित्र, साहित्य, छन्द, अलंकार, ज्योतिष - किसी भी विषय की उपेक्षा नहीं की और प्रत्येक विषय की सेवा की। वास्तव में समयसुन्दर की ६३ वर्ष तक की गई निरंतर साहित्य-सेवा अनुपम और अपरिमित है ।
तृतीय अध्याय का निष्कर्ष
तृतीय अध्याय है, 'समयसुन्दर की भाषा' । समयसुन्दर बहुभाषाविद् थे । उनका संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी पर समान अधिकार था । संस्कृत भाषा के गूढ़तम तत्त्वों का उन्हें ज्ञान था और वे इस भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् थे । संस्कृत में अष्टाक्षरों के दशलक्षाधिक अर्थ प्रस्तुत करना संस्कृत के महान् भाषाविद् के ही हाथ की बात हो सकती है। उन्होंने संस्कृत में विपुल साहित्य का निर्माण कर उसे जीवित बनाए रखने में अपना महत् सहयोग दिया था ।
महोपाध्याय समयसुन्दर प्राकृत भाषा के भी अच्छे ज्ञाता थे । उन्होंने प्राकृतभाषा में निबद्ध ग्रन्थों पर व्याख्या-ग्रन्थ तो लिखे ही थे, साथ ही साथ स्वतन्त्र रूप से प्राकृत में रचनाओं का प्रणयन भी किया था । प्राकृत रचनाओं में आवर्जक क्षमता अवश्य है, किन्तु वह स्वाभाविकता नहीं है, जो उनकी अन्य रचनाओं में मिलती है । समयसुन्दर की प्राकृत सामान्य प्राकृत है, जिसे हम महाराष्ट्री प्राकृत कह सकते हैं। उनकी प्राकृत पर संस्कृत का प्रभाव होने से वह साहित्यिक प्राकृत बन गयी है ।
समयसुन्दर की संस्कृतेतर भाषा को कतिपय विद्वानों ने राजस्थानी बताया है, तो कतिपय विद्वान् गुजराती मानते हैं । वस्तुतः समयसुन्दर की संस्कृतेतर भाषा न तो मात्र राजस्थानी है और न ही मात्र गुजराती है; वरन् उसमें दोनों का मिश्रित रूप है, जिसे हमने मरु - गुर्जर भाषा नाम से अभिसंज्ञित किया है । समयसुन्दर का जन्म - स्थान सांचोर है, जो राजस्थान एवं गुजरात की सीमा पर स्थित है । अत: उनकी भाषा पर भी दोनों प्रदेशों का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । इसलिए उनके भाषा - साहित्य में राजस्थानी और गुजराती - दोनों के रूप उपलब्ध होते हैं । समयसुन्दर ने सारे देश में भ्रमण किया था । अतः उनकी
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