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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १७.२ मान
मान विनय का विनाशक है। समयसुन्दर कहते हैं कि आजकल यत्र-तत्रसर्वत्र हुंकार अधिक सुनाई पड़ती है। सभी में 'हूँ' (मैं) भरा पड़ा है। अरे भाई! तुम अति मान किसलिए कर रहे हो? इस जगत् में पता नहीं कितने आए हैं और कितने चले गये, तो तुम किस गान में गुम हो गए हो? तुम्हें भी आज या कल अन्ततः मरना ही है, फिर मान किसका और क्यों? जिस संसार के लिये तुम अहंकार कर रहे हो, वह तो सारशून्य है। अत: अहंकार का परित्याग कर देना चाहिये।
समयसुन्दर कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के सभी दिन एक समान नहीं हुआ करते। दिनकर प्रभात-काल में उदित होता है; संध्याकाल में अस्त हो जाता है। इस तरह एक दिन में दो अवस्था हो जाती है। वस्तुतः उतार-चढ़ाव होता रहता है। आज जो ऊँचा है, कल वही नीचा हो जाता है और जो नीचा था, आज वह ऊँचा हो जाता है। जब उतार-चढ़ाव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है, तब अभिमान करना मूढ़ता है।
समयसुन्दर लिखते हैं कि सभी लोग दूसरों से आगे बढ़ने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। उनके अनुसार दूसरों की होड़ करना अच्छा नहीं है। यह होड़ अभिमान का पोषण करती है। अतः हमें अभिमान तो करना ही नहीं चाहिये, साथ ही साथ उसके पोषक-तत्त्वों से भी दूर रहना चाहिये। १७.३ माया
____ भारतीय दर्शन में माया को महाघातक बताया गया है। समयसुन्दर भी इसे वैसा ही मानते हैं। साधक को मुक्ति से विमुख रखने में माया प्रधान है। वे माया का प्रभाव बताते हुए कहते हैं कि माया कारमी (धूर्त्ता या ठगिनी) है। काया की माया में सारा संसार विलुब्ध होकर दुःखित हो रहा है। लोग माया के लोभ में ही देश-विदेश में भटकते हैं, अटवी या वन में जाते हैं। माया के वशीभूत होकर लोग जहाज में देशान्तरपर्यटन करते हैं, किन्तु वे बीच में ही डूब जाते हैं।
समयसुन्दर माया का दुष्परिणाम बताते हुए कहते हैं कि लोग माया का बहुत संग्रह करते हैं, जो कि लोभ का लक्षण है और अन्त में भय के मारे भूमि में धन को गाड़ते हैं। आश्चर्य यह है कि सर्प उस स्थान में अपना बिल बना लेता है। व्यक्ति जब गड़े हुए १. दशवैकालिक-टीका, पृष्ठ ७८ २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि -
(क) हुँकार परिहार गीतम्, पृष्ठ ४४९
(ख) मान-निवारण गीतम्, पृष्ठ ४४९-५० ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, मान-निवारण गीतम्, पृष्ठ ४५० ४. वही, माया-निवारण सज्झाय, पृष्ठ ४३०-३१
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