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________________ समयसुन्दर का विचार - पक्ष गाफिल नहीं होना चाहिये । समयसुन्दर कहते हैं कि मैंने सो-सोकर रात्रि व्यतीत कर दी, पता नहीं, यह वैरिनी निद्रा कहाँ से आ जाती है । निद्रा कहती है कि यद्यपि मैं बड़ी भोली-भाली हूँ, किन्तु बड़े-बड़े मुनिजनों को भी परास्त कर देती हूँ। वह कहती है कि वस्तुतः मैं यम की दासी हूँ। मेरे एक हाथ में मुक्ति है, तो दूसरे हाथ में फाँसी । समयसुन्दर कहते हैं कि हे बनिया ! यदि तुम डूब गए, तो तुम्हारी सारी दुनिया भी डूब जाएगी अर्थात् यदि तुम मर गए, तो तुम्हारे द्वारा बसाई गई दुनिया भी समाप्त हो जाएगी। समयसुन्दर काया के द्वारा जीव को कहलाते हैं कि हे मेरे स्वामी कन्त जीव ! तुम जागृत रहो । धर्म - ध्यान का सुख भोगो और भगवान के नाम का स्मरण करो । यदि हम जागृत हैं, तो हमारा धन हमारे पास रहेगा, कोई भी हमें धोखा नहीं दे सकता । ३ १३. मनोगत मन बड़ा शैतान एवं चंचल है । समयसुन्दर कहते हैं कि आत्मा को तो किसी न किसी प्रकार समझा जा सकता है, अथवा समझाया जा सकता है, किन्तु मन को समझना या समझाना महादुष्कर है। इसे समझा भी कैसे जाय? सोना हो तो उसमें सुहागा मिला, तपाकर पानीवत् बना सकते हैं। लोहा होता तो उसे भी ठोक-पीटकर बराबर बनाया जा सकता था। हाथी-घोड़ों को भी किसी प्रकार वश में किया जा सकता है, किन्तु मन का तो कोई आकार ही नहीं है और वह किसी प्रकार अपनी चंचलता छोड़ता ही नहीं। थोड़े समय के लिए भी ध्यान में स्थिर नहीं होता । समयसुन्दर ने स्वयं इसे ज्ञान-ध्यान से वश में करना चाहा, किन्तु यह उनके हाथ भी न लग सका। कविवर कहते हैं कि भला, जो योगी-मुनियों के वश न हो सके, वह सर्वसामान्य के वश में कैसे हो सकता है ? ४ १४. मन- -शुद्धि I प्रत्येक साधक के मन की विशुद्धि नितान्त अपरिहार्य है । समयसुन्दर का कथन है कि मन यदि मलसिक्त है, तो साधना कभी भी फलीभूत नहीं हो सकती । मनः शुद्धि के बिना कोई मुक्ति नहीं पा सकता । वे कहते हैं, यदि मनः शुद्धि नहीं हुई, तो भले तुम मस्तक पर केश-जटा धारण करो, मस्तक मुंडाओ, वन में रहकर क्षुधा - तृषा को सही, तीर्थ-स्नान करो, साधु-वेश अंगीकार करो, भस्म लगाओ, वेद-पुराणों का पठन-पाठन करो अथवा लोक में भक्त कहलाओ, किन्तु इनसे किसी भी तरह का कोई लाभ नहीं है । देखिये समयसुन्दर के शब्दों में - १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, अंतरंगबाह्यनिद्रानिवारण गीतम्, पृष्ठ ४३५ २. वही, निद्रा गीतम्, पृष्ठ ४३६ ३. वही, अंतरंगबाह्यनिद्रानिवारण गीतम्, पृष्ठ ४३५ ४. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, मन - सज्झाय ४२९ ४६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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