________________
४५४
महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा अविचल मेरु भी चलायमान हो जाए तो भी लिखित (भाग्य) पुरुषार्थ से कभी नहीं मिट सकता। भावी एक घड़ी के लिए भी घट-बढ़ नहीं सकती है। होनहार तो होकर ही रहता है। समयसुन्दर का कहना है कि भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का संयोग होने पर प्रत्येक मनोवांछित सिद्ध किया जा सकता है।३।।
समयसुन्दर के विचारानुसार यद्यपि भवितव्यता प्रबल है, किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि पुरुषार्थ फलीभूत नहीं होता है। यदि व्यक्ति भाग्य पर भरोसा रखकर पुरुषार्थ नहीं करेगा तो वह साध्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा। यदि किसी व्यक्ति के सामने भोजन की थाली रख दी जाय और अब वह यह सोचे कि भाग्य में होगा तो पेट भर जाएगा तो यह सम्भव नहीं है। यहाँ कौर उठाने रूप पुरुषार्थ की ही अपेक्षा है। वस्तुतः पुरुषार्थ से ही सब कार्यों की सिद्धि होती है।
समयसुन्दर कहते हैं कि यह कभी मत कहो कि एकाकी भाग्य ही प्रबल है अथवा एकाकी पुरुषार्थ ही प्रबल है। वे दोनों का समन्वय करते हुए कहते हैं कि निश्चय दृष्टि से भाग्य प्रबल है तथा व्यवहार दृष्टि से पुरुषार्थ। निश्चय और व्यवहार दोनों का परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है। अतः भाग्य एवं पुरुषार्थ दोनों का समन्वय अनिवार्य है। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। ३. स्याद्वाद
समयसुन्दर लिखते हैं कि स्याद्वाद तीर्थङ्ककर वचन और जैन-दर्शन का मूल है। इसमें पारस्परिक वचनों में विरोध की सम्भावना नहीं रहती है। स्याद्वाद की सिद्धि नय से होती है। नय सात है- १. नैगमनय, २. संग्रहनय, ३. व्यवहारनय, ४. ऋजुसूत्रनय, ५. शब्दनय, ६. समभिरूढ़नय और ७. एवंभूतनय। इन सप्तनयों से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का परीक्षण किया जाता है। इसलिये ये सुनय हैं। कुनयों में एक वस्तु को सदात्मक मानने वाले सांख्य, असदात्मक कहने वाले माध्यमिक, अभिलप्यमान मानने वाले वैयाकरण प्रभृति एकान्तवादी परिगणित है। वस्तुतः एक वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं और अनन्त धर्मात्मक वस्तु का पर्यालोचन उपर्युक्त सुनयों से अतीव सुगम है। ४.साम्प्रदायिक सहिष्णुता
समयसुन्दर की विचार-धारा अनाग्रही एवं समन्वयवादी हैं। समयसुन्दर के १. वही, उद्यम भाग्य गीतम्, पृष्ठ ४३९ २. चम्पक श्रेष्ठि-चौपाई (३-१-२) ३. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, उद्यम भाग्य गीतम्, पृष्ठ ४३९ ४. चम्पक श्रेष्ठि-चौपाई (ढाल ७ दूहा ३.४; ८-२) ५. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, प्रस्ताव सवैया छत्तीसी, पृष्ठ ५२१ ६. सप्तस्मरणस्तववृत्ति, द्वितीय स्मरणम्, पृष्ठ १७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org