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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व १२. ३ उपाध्याय पद - कवि को वाचक पद के इक्कीस बाईस वर्ष के पश्चात् उपाध्यायपद प्राप्त हुआ था । कवि राजसोम की रचना के आधार पर यह संकेत तो मिलता है कि समयसुन्दर को उपाध्याय - पद उनके शिक्षा गुरु जिनसिंहसूरि के कर कमलों से जोधपुर जिले के लवेरा नगर में प्रदान किया गया था, लेकिन कवि राजसोम ने यह उल्लेख नहीं किया है कि यह पद उन्हें किस संवत् में दिया गया । अस्तु ! समयसुन्दर की कृतियों पर से इसका संवत् निश्चित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है ।
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कवि समयसुन्दर अपनी रचनाओं में वि० सं० १६७१ तक 'वाचक समयसुन्दर' के रूप में ही अपनी पहचान करवाते हैं । किन्तु सं० १६७२ और उसके पश्चकाल में रचित कृतियों में कवि ने अपने नाम के साथ 'उपाध्याय' विशेषण का प्रयोग किया है । वि० सं० १६७२ में रचित कृतियों में 'उपाध्याय' उपाधि का उल्लेख इस प्रकार है - तेषां शिष्यो मुख्यः स्वहस्तदीक्षित सकलचन्द्रगणिः । तच्छिष्य- समयसुन्दर, सुपाठकैरकृत शतकमिदम् ॥२
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जयवंता गुरु राजिया रे, श्री जिनसिंहसूरि राय ।
समयसुन्दर तसु सानिधि करी रे, इप पभणइ उवझाय रे ॥३
अतः स्पष्ट है कि समयसुन्दर को वि० सं० १६७१ से १६७२ तक के मध्यवर्ती काल में ही 'उपाध्याय' पद प्रदान किया गया था। श्री अगरचन्द नाहटा तथा श्री भंवरलाल नाहटा ने कवि की अन्य कृतियों में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर यही बात सिद्ध की है कि 'अनुयोगद्वार' (रचना नं० १६७१ ) की पुष्पिका में 'वाचक' और 'ऋषिमंडल - वृत्ति' (१६७२) की पुष्पिका में उपाध्याय - पद उल्लिखित होने से इसी बीच इनका 'उपाध्याय पद' पाना निश्चित है ।
१२.४ महोपाध्याय-पद- • प्राच्य साहित्य के अवलोकन से अवगत होता है कि खरतरगच्छ की यह परम्परा रही है कि उपाध्याय-पद में जो सबसे बड़ा होता है, वही महोपाध्याय कहलाता है । पश्चवर्ती कई कवियों ने समयसुन्दर को महोपाध्याय की श्रेष्ठ उपाधि से सूचित किया है । यह उपाधि इन्हें परम्परागत प्राप्त हुई थी, क्योंकि आचार्य जिनसिंहसूरि के कालधर्म प्राप्त करने के पश्चात् अर्थात् वि० सं० १६८० से गच्छ में मात्र आप ही ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और दीक्षापर्यायवृद्ध थे । अतः गच्छ की परम्परा के कारण कवि महोपाध्याय कहलाये । यही कारण है कि वादी हर्षनन्दन ने अपनी रचना
१. श्री जिनसिंहसूरींद सहेर लवेर हो पाठक-पद कीयो ।
- नलदवदन्ती रास, परिशिष्ट ई; राजसोम कृत समयसुन्दर गीतम्, पृष्ठ १३३ २. विशेष - शतक (४)
३. सिंहलसुत - प्रियमेलक - रास (११-६)
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