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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व छन्द उस वाक्य-रचना को कहते हैं, जिसमें गेयता के लिए पदों के वर्णों या मात्राओं का कोई निश्चित मान हो और जो अपने चरण, गति, यति तथा यथासम्भव तुक में आबद्ध होती है। कवि समयसुन्दर ने अपनी कृति 'वृत्तरत्नाकर-वृत्ति' में छन्दों के संबंध में अन्य जानकारी देते हुए लिखा है कि हमारे यहाँ छन्दः सूत्र, भाष्य के प्रणेता पिङ्गल आदि आचार्यों ने छन्द मुख्यतया दो प्रकार के माने हैं- मात्रिक और वार्णिक। मात्रिक छन्द के चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है। एक ह्रस्व-स्वर के उच्चारण में जितना समय लगता है, उसे 'मात्रा' कहते हैं। मात्रिक छन्द को मात्रा वृत्त' भी कहते हैं। वार्णिक छन्द के चरणों में लघुगुरु के क्रम से वर्गों की संख्या निश्चित की जाती है। इसे 'वर्णवृत्त' भी कहा जाता है।
वार्णिक छन्दों में तीन वर्गों के समुदाय को 'गण' कहते हैं और मात्रिक छन्दों में चार मात्राओं के समूह को 'गण' कहते हैं। वर्ण-गण आठ हैं - १. मगण (555), २. नगण (ITI), ३. भगण (5।।), ४. जगण (151), ५. सगण (IIS), ६. यगण (155), ७. रगण (55), ८. तगण (55।)। जिस वर्ण के उच्चारण में एक मात्रा का समय अर्थात् ह्रस्व-उच्चारण का समय लगता है, उसे 'लघु' कहते हैं। लघु वर्ण का संकेत ऊर्ध्वरेखा (1) द्वारा प्रगट किया जाता है। जिसके उच्चारण में लघु से दुगुना समय व्यय होता है, उसे 'गुरु' या 'दीर्घ' कहते हैं। इसका चिह्न अवग्रह (5) होता है। छन्द में प्रयुक्त संयुक्त व्यञ्जन का प्रथम लघु-वर्ण गुरु होता है। जिस वर्ण के ऊपर अनुस्वार हो
और जिस वर्ण के आगे विसर्ग हो, वह भी गुरु है। पाद के अन्त में आया हुआ ह्रस्व-स्वर भी आवश्यकतानुसार गुरु माना जाता है।
__कविप्रवर समयसुन्दर छन्दःशास्त्र के पण्डित थे। किसी विशिष्ट छन्दःशास्त्र की व्याख्या वही व्यक्ति कर सकता है, जो उसका पूर्णतः ज्ञाता है। उन्होंने 'वृत्तरत्नाकर' नामक विशद् छन्दःशास्त्र की सुन्दर वृत्ति लिखी है। अतएव छन्दों के प्रयोग में उनके पूर्ण कौशल की सहज आशा की जा सकती है। विविध छन्द जातिमयं श्री वीतराग स्तव' में उन्होंने भिन्न-भिन्न प्रकार के लगभग २५ छन्दों को व्यवहृत कर अपने छन्दःशास्त्रीय अध्ययन का प्रदर्शन किया है। कवि का छन्दःशास्त्रीय ज्ञान विस्तृत था- इसका प्रमाण हमें इस बात से भी मिल जाता है कि उन्होंने ऐसे छन्दों का प्रयोग भी किया है, जिसका प्रयोग अन्य कवियों ने नहीं किया है। 'छन्द-मञ्जरी' या वृत्तरत्नाकर' जैसे छन्दःशास्त्रों में भी उन्हें अप्रसिद्ध या अप्रयुक्त होने के कारण ग्रहण नहीं किया गया है।
प्रस्तुत कवि के साहित्य का सर्वेक्षण करने से तो यह लगता है कि कवि छन्दों के चुनाव में प्रवीण थे। उनकी छन्द-योजना विषयानुसार परिवर्तित होती रहती है। उन्होंने काव्य में एकरसता से बचने के लिए प्रायः विविध छन्दों का प्रयोग किया है। घटना, भाव, विचार या विषय के अनुकूल छन्दोपरिवर्तन करना कवि की स्वाभाविक
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