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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३८३ यहाँ एक पक्षीय अनुराग होने से विषम-अलङ्कार हुआ है। २.१८ अतद्गुणलङ्कार
जहाँ संगति लगने पर भी उसके प्रति संगति न लगे, वहाँ अतद्गुण अलङ्कार होता है। यथा -
हुँ रागिणी पण नेमि निरागी, जोरइ प्रीति न होइ हो। एक हथि ताली पिण न पड़इ, मुझ मन तरसइ तोइ हो।
- श्री नेमिनाथ फाग (७) यहाँ रागिणी राजीमति के सम्पर्क में आने पर भी नेमिनाथ में राग उत्पन्न नहीं होता, अतः अतद्गुण-अलङ्कार हुआ।
संक्षेपत: यह कहा जा सकता है कि समयसुन्दर का अलङ्कार-प्रयोग व्यापक है। यद्यपि यह सही है कि अलंकार-प्रयोग उनकी काव्य-रचना का उद्देश्य नहीं था, तथापि उनका काव्य स्वभावतया अनेक अलङ्कारों से अलंकृत हुआ है। कुछेक रचनाएँ ऐसी अवश्य हैं, जिनकी रचना अलङ्कारों से अलंकृत करने के लिए ही की गई हैं, किन्तु सामान्यतः अलङ्कार-प्रयोग काव्य को रसोद्दीपक एवं आवर्जक बनाने के लिए ही हुआ है, जो कि पूर्णतः स्वाभाविक प्रतीत होता है। हाँ, जितने अलङ्कार प्रयुक्त हुए हैं, उनसे लगता है कि समयसुन्दर अलङ्कारों के प्रयोग में अति पटु थे। उपर्युक्त अलङ्कारों से काव्य के भाव तथा कला --- दोनों पक्षों की शोभा में अभिवृद्धि हुई है। ३. गुण
गुण वे भावात्मक तत्त्व हैं, जो मुख्य रूप से रस का तथा गौण रूप से शब्दार्थ का उत्कर्ष करते हैं। गुण से काव्य की शोभा बढ़ती है। गुण का संबंध काव्य एवं भाषा की आन्तरिक विशेषता से है। काव्य यदि अलङ्कारयुक्त होने पर भी गुणरहित है, तो वह प्रीतिजनक नहीं हो सकता, जैसे कुरूपवती स्त्री के हार आदि आभूषण केवल भाररूप होते हैं। वस्तुतः गुण काव्य के केवल शोभाकारक धर्म ही नहीं हैं, अपितु वे रस के धर्म भी हैं, रस के उत्कर्ष के हेतु हैं और रस में अविचलित भाव से स्थित रहने वाले हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र में गुण का वर्णन मुख्यतः दो रूपों में हुआ है -
(क) वामन के अनुसार शब्द और अर्थ (काव्य) के धर्म रूप में; १. काव्य शास्त्र : एक नव्य परिबोध, पृष्ठ ६२ २. अलंकृतमपि प्रीत्यैन काव्य निर्गुणं भवेत्।
वपुष्यललिते स्त्रीणां हारो भारायते परम्॥- अग्निपुराण (१.३४६) ३. ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यदिय इवात्मनः।
उत्कर्ष हेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः॥ काव्यप्रकाश (८.६६) ४. काव्याशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः।- हिन्दी काव्यालंकार सूत्र (३.१.१)
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