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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
३७१ २.१ अनुप्रासालङ्कार
जहाँ वर्णों की अनेक बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास-अलंकार होता है। विवेच्य साहित्य में प्रयुक्त अनुप्रास-अलंकार ही यह छटा द्रष्टव्य है। इससे काव्य के नाद-सौन्दर्य में वृद्धि हुई है। यथा -
सम लक्षण लावण्य गुण, सम मार्दव सम रूप, सम मति सम गति सोभती, सरिखउ सकल सरूप॥
-थावच्चासुत रिषि चौपाई, खण्ड १, ढाल ७ से पूर्व दूहा ३ यहाँ 'स' की और 'म' की अनेक बार आवृत्ति होने से अनुप्रास-अलंकार सिद्ध होता है। पुनर्यथा -
वापी-वप्र-विहार-वर्ण-वनिता वाग्मी वनं वाटिका, वैद्य-ब्राह्मण-वेश्य-वादि-विबुध-वेश्या-वणिग वाहिनी। विद्या-वीर-विवेक-वित्त-विनयो वाचंयमो वल्लिका, वस्त्रं वारण-वाजि-वेसर-वरं चैभिः पुरं शोभितम् ॥
-कालिकाचार्य-कथा, पृष्ठ १९८ चंदो चंदन नइ चित्रसाली, चरणउ चूनड़ि सार जी। चूड़उ चीर अनइ चतुराई, अम्ह तनि लागइ अंगार जी।
– पुण्यसार-चरित्र चौपाई (१०.५) भरतार सुं सुख भोगवं रे, हंस घणी घणउ हेज रे। सुण हइ सखर समारीयउ रे, सखरी सजी सुख सेज रे॥
-द्रौपदी-चौपाई (१.९.१) अलख अगोचर तूं परमेसर, अजर अमर तूं अरिहंत जी। अकल अचल अकलंक अतुल बल, केवल ज्ञान अनंत जी॥ निराकार निरंजन निरूपम, ज्योतिरूप निरखंत जी। तेरा सरूप तूं ही प्रभु जाणइ, के जोगीन्द्र लहंत जी।
-चौबीसी, धर्मजिनस्तवन (१-२) कमन-कंद-निकंदन-कर्मदं, कठिन-कक्ष ममा नमति समम्। मदन-मंदर-मर्दन-नंदिरं, नयन-नंदन-नंदनि निर्द्धनम् ।। निखिल-निर्वत्त-निश्वन-नर्दितं, नत जनं सम नर्मद दंभनम्। दम-पदं विमदं धन-नव्यभं, नभ वनं हससं शिवसंभवम् ।। सतत-सजन-नंदित नव्यभं, नयधनं वरलब्धिधरं समम्। रदन-नक्रमनश्चलनप्रियं, नलिन-नव्यय नष्ट वनं कलम्॥
-- श्री पार्श्वनाथ शृंगाटकबन्ध स्तवनम् (१-३)
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