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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
खिण माहे खेरु हुइ रे, काचउ माटी भण्ड । जीरण तृणनउ झुंपरडउ रे, अथिर ज्युं सूकउ एरण्डो रे ॥ काया ए कृतघन कही रे, पोषउ विविध उपाय । एक दिन जउ नवि पोषीइ रे, तर ते लडथडी जायो रे ॥ जरा करी तन जाजरउ रे, सडण पडण विध्वंश । पहिलउ पणि परछइ पणइ, छोडिवउ केही प्रसंसो रे ॥ ९
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मोक्ष भणी जातां थकां जी, विषय करइ अन्तराय । संयम प्रवहण भंजिवा जी, विषय कह्या महावाय रे ॥ विषय सेवइ कुण एहवा जी, कामनी कुण वेसास । खिण राचइ विरचइ खिणइ, खिण नाखइ नीसास रे ॥ २
इसी तरह साधु-साध्वियों तथा सतियों से संबंधित कवि के अनेक गीतों में हमें शान्तरस का दर्शन होता है। उनकी लगभग १०० औपदेशिक रचनाएँ तो आद्यन्त शान्तरस से परिपूर्ण हैं। इनकी इन सभी रचनाओं का विवरण द्वितीय अध्याय में प्रस्तुत किया गया है ।
इस प्रकार हम पाते हैं कि महोपाध्याय समयसुन्दर ने रस- परिपाक में विशेष रुचि ली है | भावाभिव्यंजना में वे बड़े प्रवीण दिखाई पड़ते हैं । उनके साहित्य में विविध रसों का यथा-स्थान सुन्दर परिपाक हुआ है। शान्त रस में पाठक को डुबो देना - यही उनके रस-परिपाक का अन्तिम परिणाम है । शृंगार-रस के उद्दीपन में कहीं-कहीं अवरोध होता हुआ-सा भी पाते हैं, जिसका मुख्य कारण था – कवि का भोगपरक जीवन की असारता एवं योगपरक चारित्रनिष्ठ जीवन की श्रेष्ठता को व्यक्त करना । फिर भी उन्होंने भौगिक रसों का भी अपने काव्यों में सफलतापूर्वक निर्वाह किया है, जो सहृदय-संवेद्य है। २. अलङ्कार - शिल्प
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अलङ्कार काव्य के सौन्दर्य एवं कलापक्ष की आधारशिला हैं । काव्य में रस से यदि आनन्द की अनुभूति होती है, तो अलङ्कार से सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती है । अलंकार मात्र चमत्कार - प्रदर्शन की वस्तु ही नहीं है, अपितु रसानुभूति को अधिक प्रभावोत्पादक एवं रोचक बनाने में सहायक भी हैं। संक्षेप में, रस आनन्दसूचक है और अलंकार विस्मयसूचक ।
'अलंकार' की परिभाषा तथा उसके प्रयोजन के संबंध में भारतीय काव्यशास्त्रियों में भिन्न-भिन्न मत रहे हैं । दण्डी ने काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्मों को
९. वही (१.६.३-५)
२. थावच्चासुत ऋषि चौपाई (१.७.७-८)
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