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समयसुन्दर की रचनाओं में साहित्यिक तत्त्व
मगसरइ वाजइ वाय, विरहणी केम खमाय । मंद किया के अंतराय, ते केवली कहिवाय ॥ पापियउ आवयउ पोष, स्यउ जीविवा नउ सोस । दिन घट्या बाधी राति, ते गमुं केण संघाति ॥ माह मास विरही मार, शीत पड़इ सबल ठठार । भोगी रहइ तन मेलि, मुझ नइ पियु मन मेल ॥ फूटरा फागुण बाग, नर नारी खेलइ फाग । नेमि मिलइ नहीं जां सीम, तां सीम रमिवा नीम ॥ चैत्र आम मउर्या चंग, कोयली मिली मन रंग । बाई माहरउ भरतार, की मेलस्यइ करतार ॥ वैशाख वारु मास, नहीं ताढ़ि तड़कउ तास । ऊँची चढ़ि आवास, वइसयइ केहनइ पास ॥ जेठ मासि लू नउ जोर, मेहनइ चितारइ मोर । हूँ पिण चिता नेमि, पणि नेमि नाणई प्रेम ॥ आषाढ़ उमट्या मेह, गया पंथि आपणि गेह । हूँ पणि जोउं प्रिय वाट, खांति वछाउं खाट ॥
इस तरह हम पाते हैं कि विवेच्य साहित्य में शृंगार - लीला बड़ी रमणीयता के साथ मुखरित हुई है।
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१.२ हास्य रस
हास्य रस का स्थायी भाव 'हास' है। आचार-व्यवहार तथा वेश-भूषा की अनुपयुक्तता, असंगति, भद्दापन, विकृति, धृष्टता, चपलता, प्रलाप, व्यंग्य आदि इसके विभाग माने गये हैं । भरत ने हास्य के दो उपभेद किये हैं - ( १ ) आत्मस्थ, जहाँ विदूषक या पात्र स्वयं हँसता है और (२) परस्थ, जहाँ वह दूसरों को हँसाता है। अभिनव ने इसका परिष्कृत रूप इस प्रकार दिया है - ( १ ) स्वगत हास्य और (२) अन्यत्रसंक्रान्त हास्य ३
कवि ने अपनी रचनाओं में अनेक स्थानों पर हास्य भावनाओं की सुन्दर सृष्टि की है। इस रस के पल्लवन के लिए कवि ने रचना अथवा अन्य किसी के रूप-रंग, आकार-प्रकार, बोलचाल आदि में कोई ऐसा विलक्षण विकार प्रदर्शित किया है, जो आह्लाद का उत्पादक होता है । अन्यायपुर के राजा की न्याय-पद्धति इस रस का अचूक १. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, बारहमासा गीतम् (१-१२)
२. हिन्दी अभिनव भारती, पृष्ठ ५७२
३. वही, पृष्ठ ५७३
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