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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अपने पति जुगबाहु से अपना स्वप्र-दर्शन कहने को प्रस्तुत होती है -
इक दिन मयणरेहा तिन अवसर, निस भर सूती आपणे मन्दिर। सुपन फेरवे पुनमचन्दा, जागत प्रगट्यो परमानन्दा ॥ चन्द सुपन मनमाहे धरती, चाली निज प्रियु पासे निरती। राजहंस जिम लीला करती, ठमठम अंगण पगला धरती। आपण प्रिउ ने पासे आवे, कोमल वचने कंत जगावे। मयणरेहा बोली अति मीठी, चन्दस्वपन स्वामी मैं दीठो॥
लङ्का विजय पर राम-सीता के मिलाप को कवि ने जिस सजीव शब्दावलि में अवतरित किया है, वह कवि के रचना-कौशल का परिचायक है -
जांणे सींची चन्दनइ रे, झीली अमृत कुण्ड रे। छांटी कपूर पाणी करी रे, इम सुख पाम्यो अखण्ड रे॥ सीता राम साम्हो जोयो रे, राम थया अति हृष्ट रे। चक्रवाक जिम प्रह समइ रे, चक्रवाकी नी दृष्टि रे॥ राम सीता बेऊँ मिल्या रे, जे थयो सुख सनेह रे।
ते जाणइ एक केवली रे, के वलि जाणइं तेह रे॥ १.१.२ विप्रलम्भ श्रृंगार
___ आलोच्य साहित्य में विप्रलम्भ की दशों दशाओं का चित्रण हमें उपलब्ध होता है। कवि का विरह-वर्णन बिहारी आदि की तरह ऊहात्मक एवं अतिशयोक्तिपूर्ण न होकर वेदनात्मक और अकृत्रिम है। कवि की अधिकांश विरह-पात्राएँ विरह के प्रारम्भिक काल में तीव्र वेदना की अनुभूति करती हैं, लेकिन बाद में वे इसे कर्मफल आदि समझकर धर्मपूर्वक जीवन बिताती हैं। विवेच्य रचनाओं के विप्रलम्भ श्रृंगार पक्ष की एक और विशेषता है कि ये विरह पात्राएँ कृष्ण की गोपिकाओं की भांति मात्र वियोग-पीड़ा से छटपटाती ही नहीं है, अपितु उसे दूर करने के लिए स्वयं पुरुषार्थ भी करती हैं। पुण्यसारचरित्र' की नायिका इसका उत्तम उदाहरण है। यद्यपि विवेच्य काव्य की भूमि सिमटकर शान्त रस में केन्द्रित हुई है, पर विप्रलम्भ-शृंगार का जो जीवन्त रूप प्रस्तुत हुआ है, वह भावपक्षीय रमणीयता का सृजन कर रसोद्रेक में सहायक बनता है।
__स्थूलिभद्र तथा कोशा से संबंधित सभी रचनाएँ विप्रलम्भ शृंगार की दाहकज्वाला का दर्शन कराती हैं। कोशा कहती है कि परदेशी से प्रीति कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उसका पुनः आना कठिन है। मैंने भी परदेशी से प्रीति की और अब विरह ज्वाला से धधक रही हूँ। दिन में अन्न-जल ग्रहण न कर पाने के कारण दुखी हूँ और रात्रि १. चार प्रत्येक-बुद्ध चौपई (३.३.१-३) २. सीताराम-चौपाई (७.५.१४-१६)
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