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समयसुन्दर का वर्णन-कौशल
३२१ सौ गोअल दस दस सहस गोअल गोअल गाइन रे। व्यापारी सेवा करै दस हज्जार घर आइन रे॥ लाख द्रव्य लागै जिणे, एहवी अंग नौ भोगन रे।
मन वंछित सुख भोगवै, पूरव पुण्य संयोगन रे ॥१
लङ्का नामक समृद्धिपूर्ण नगरी के स्वामी त्रिखण्डाधिप रावण के वैभव का वर्णन अवलोक्य है -
राज करै तिहां राजीयौ, राणौ रावण दूठौ रे। इन्द्रजित मेहनाद एहवा, पुत्र पूरै जसु पूठौ रे ॥ ऊँघ छमासी एहनी, कुम्भकरण कहिवायौ रे। विभीषण थी सह को बीहै, बांधव सबल सहायो रे॥ अढार कोड़ि अक्षौहिणी साथ चढे सनूर रे। त्रिण्ह खण्ड नो ते धणी, पृथिवी मांहि पडूर रे॥ बत्रीस सहस अन्तेउरी, पामी पुण्य संयोगो रे । अपछर सेती इन्द्र जिम, भोगवै सगला भोगो रे॥ जसु घर विह को दप दलै, जम राणौ वहै नीरो रे। पवन बुहारै आंगणे, सबल हटक नै हीरो रे॥ नव ग्रह सेवा नित करै, खड़ातड़ा जसु खाटो रे।
इन्द्र तिके डरता रहै, नांख्या रिपु निरघाटो रे॥२ इसी प्रकार कवि ने अपने स्थानों पर ऋद्धि और वैभव का सरस वर्णन किया है। विस्तार-भय से अधिक उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ४. स्वप्न-दर्शन
विवेच्य रचनाओं में स्वप्नों का भी यथास्थान अङ्कन हुआ है। तीर्थङ्करों या अन्य महापुरुषों की माताओं को स्वप्न-दर्शन होते हैं । उनका फल तीर्थङ्कर के पिता या ब्राह्मण पण्डित बतलाते हैं। समयसुन्दर ने रास-काव्यों में इन स्वप्नों का प्रसंगोचित वर्णन किया है। कल्पलता' में उन्होंने तीर्थङ्कर-माता द्वारा दर्शित चौदह स्वप्नों का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। ५. नख-शिख-वर्णन
साहित्य में नव-शिख-वर्णन की परम्परा प्राच्य काल से ही चली आ रही है। कविवर्य समयसुन्दर ने अपने काव्यों में नायिका के अंग प्रत्यंगों का वर्णन प्रचुर परिमाण में किया है। यद्यपि कवि ने विशिष्ट पात्रों के नख-शिख-वर्णन में परम्परागत उपमानों की १. चम्पक श्रेष्ठि चौपाई (२.१.१-७) २. चम्पक श्रेष्ठि चौपाई (१.४.१-७)
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