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________________ समयसुन्दर की भाषा ३०३ भाषित सामग्री एक ही होती है। अन्तर इतना ही है कि सामान्य भाषा तो उसका यथावत् प्रयोग करती है, किन्तु काव्य भाषा उस कच्चे माल को अपनी कल्पनाशील सर्जनात्मकता के द्वारा नवीन आयाम और नवीन अर्थवत्ता प्रदान कर देती है। अत: मूलभाषा सामान्य भाषा ही है। उसी की नींव पर काव्य भाषा का प्रासाद खड़ा होता है। इन दोनों में प्रकृतिगत भेद न होकर केवल गुणात्मक भेद है। समयसुन्दर की भाषा सामान्य भाषा की अपेक्षा काव्य-भाषा ही अधिक है। उसमें सामान्य भाषा की अपेक्षा नवीनता, प्रभविष्णुता, अर्थवत्ता, शक्ति-सामर्थ्य और आकर्षण है। उन्होंने अपने काव्यों में ग्राम्य-भाषा के शब्दों को भी इस तरह संजोया है कि वे स्वर्ण-मुद्रिका में जड़ित रत्न के समान चमकते हैं - फलवर्धि मण्डण पास, एक करूँ अरदास। कर जोड़ी करएि, हरख हियड़उ धरिए॥ कहने की जरूरत नहीं है, यहाँ द्वितीय पंक्ति में हर्ष और हृदय शब्द उतने नहीं फबते जितने लोक-भाषा के 'हरख', 'हियड़उ' फब रहे हैं; जबकि अन्य स्थानों पर कवि ने 'हरख' के लिए हर्ष और 'हियडर' के लिए हृदय शब्द ही प्रयोग किया है। समयसुन्दर की भाषा की आन्तरिक विशेषता यही है कि वे वर्ण्यविषयानुरूप अपनी भाषा को ढाल लेते हैं। समयसुन्दर की भाषा-शक्ति अद्वितीय है। उसकी अपनी विशेषताएँ हैं । भाषाशक्ति ने ही उनके काव्यों को सरस और सुबोध बनाया है। यह सत्य है कि काव्य-दृष्टि से काव्य-रचना समयसुन्दर का लक्ष्य नहीं था, फिर भी उनकी रचनाओं में उच्च कोटि का कवित्व विद्यमान है, जिसके अवलोकन से उनकी भाषा-शक्ति का परिचय देने वाली अनेक विशेषताएँ सामने आती हैं। समयसुन्दर की भाषाशक्ति की प्रथम विशेषता है - अप्रस्तुत योजना अथवा सादृश्य योजना। अप्रस्तुत योजना अथवा सादृश्य योजना के द्वारा ही कवि के अभिव्यक्तिकौशल को आंका जा सकता है। काव्य-क्लेवर की समृद्धि एवं भाव-व्यंजना के लिए इसकी योजना की जाती है। समयसुन्दर के साहित्य में इसकी अत्यन्त समृद्ध योजना हुई है। उन्होंने जिन उपमानों का प्रयोग किया है, वे अपने-आप में पूर्ण और मर्मस्पर्शी हैं। उनके साहित्य में एक भी ऐसा उपमान दिखाई नहीं देता है, जो बिम्ब प्रस्तुत करने में असमर्थ हो। समयसुन्दर ने अपनी अभिव्यक्तियों को सशक्त एवं कलात्मक बनाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के उपमानों की योजना की है, जिसमें वे सफल हुए हैं। उदाहरण के लिए यहाँ केवल एक ही पद्य प्रस्तुत करते हैं, विशेष चर्चा हम पंचम अध्याय के अलंकारशिल्पान्तर्गत करेंगे - प्राचीदिग्प्रमदा चक्रे विशाले भालपट्टके। बालारुणरवेबिम्बं चारुसिन्दूरचन्द्रकम्॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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