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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व दुर्लभराज आपका परमभक्त था । जिनेश्वरसूरि आपके प्रभावक शिष्य थे । १०. २ जिनेश्वरसूरि - कालक्रम के प्रभाव से जैन- यतिवर्ग अपने आचार में शिथिल हो गया था। आपने शिथिलाचारी चैत्यवासी यतियों के विरुद्ध एक प्रबल आन्दोलन किया । संवत् १०७४ के लगभग आपने अणहिलपुर पाटण में दुर्लभराज की राज्यसभा में चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर 'खरतर ' विरुद प्राप्त किया। इसका चैत्यवास पर गहरा प्रभाव पड़ा। जैन समाज में नूतन युग का सूत्रपात हुआ । आपकी श्रमण परम्परा खरतरगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । आपके प्रखर पाण्डित्य, उत्कृष्ट चारित्र, गम्भीर व्यक्तित्व और प्रबुद्ध कृतित्व के फलस्वरूप ही हमारे कवि ने इन्हें 'जगत् विश्रुत' बताया है। आपके प्रणीत अष्टक - प्रकरणवृत्ति, षट्स्थान- प्रकरण, कथाकोश- प्रकरण आदि ग्रन्थ आपकी असाधारण साहित्यिक प्रतिभा के परिचायक हैं। आपके गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि ने 'बुद्धिसागर - संस्कृत - व्याकरण' की रचना की, जो श्वेताम्बर जैन परम्परा के आचार्यों द्वारा रचित व्याकरणों में प्रथम है । २
१०. ३ जिनचन्द्रसूरि - आप श्रमणधर्म की विशिष्ट साधना करते हुए युगप्रधान - पद पर आसीन हुए। आपका व्यक्तित्व प्रभावशाली था । आपकी कृतियों में १८००० श्लोकप्रमाण में विरचित 'संवेगरंगशाला' (रचना-काल सं. १९२५) विशिष्ट कृति है । आपकी पंचपरमेष्ठी - नमस्कार - फलकुलक, क्षपक-शिक्षा-प्रकरण, जीव-विभक्ति आराधना, पार्श्वस्तोत्र आदि रचनाएँ भी प्राप्त हैं । आपके शिष्य द्वारा निर्मित 'दिनचर्या' नामक ग्रन्थ भी ख्याति प्राप्त है । ३
१०.४ अभयदेवसूरि - आप आत्मज्ञ और आगमज्ञ थे । आपका जन्म वि. सं. १०७२, आचार्य - पद सं. १०८८ और देहावसान संवत् ११३५ या ३६ के आसपास हुआ। आपने १. (क) यक : शोधयामास वै सूरिमन्त्रं, गिरीन्द्रार्बुदस्याद्भुतेशृंगभागे ।
विधायाष्टमं सन्नमन्नागनाथस्ततो, वर्धमानाभिधः सूरिरासीत् ॥ - अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति ७
(ख) खरतरगच्छ - पट्टावली, पत्र २ २. (क) श्रीमदुर्लभराजराजसदसि ' श्रीपत्तने' पत्तने ।
वादं श्वेतपटैः प्रभूतकपटैः साकं सदा लम्पटैः ॥ कृत्वा यः प्रकटीचकार वसतेर्मार्ग-मनोहारिणं । सूरिभूरिजयो जिनेश्वरगुरुर्जातो जगद्विश्रुतः॥ - अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति ८
(ख) खरतरगच्छ - पट्टावली, पत्र २ ३. (क) संवेगरंगशाला येन कृता जगति लोकहितहेतुः ।
जात: श्री जिनचन्द्रः सूरिस्तत्पट्ट समचन्द्रः ॥
(ख) खरतरगच्छ - पट्टावली, पत्र २
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अष्टलक्षार्थी, प्रशस्ति ९
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