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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ९. दीक्षा
जैन परम्परा में दीक्षा का अर्थ है - समभाव की साधना। समभाव की साधना या वीतरागता की उपासना ही जैन धर्म का केन्द्रीय-तत्त्व है। इसी के माध्यम से मनुष्य वीतरागता के आदर्श को प्राप्त करता है। दीक्षित व्यक्ति चित्तविक्षोभों को समाप्त कर निर्विकल्प दशा के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी लिखते हैं कि वैराग्य की उत्तम भूमिका को प्राप्त होकर मुमुक्ष व्यक्ति अपने परिजनों से क्षमा माँगकर, गुरु की शरण में जा, सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित रहता हुआ समभावāक जीवन जीने की प्रतिज्ञा करता है।
जब मनुष्य प्रव्रज्या अंगीकार करता है, तब वह यह प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि मैं सामायिक (समभाव) ग्रहण करता हूँ और पापकारी प्रवृत्तियों का परित्याग करता हूँ। जीवनपर्यन्त मन, वचन और शरीर से सावद्य-योग (हिंसक प्रवृत्तियों) को न स्वयं करूँगा और न दूसरे से कराऊँगा। हे स्वामिन् ! पूर्वकृत् पाप से मैं निवृत्त होता हूँ, अपने हृदय में उसे बुरा समझता हूँ और उनकी आलोचना करता हूँ तथा मैं अपनी आत्मा को पाप-क्रिया से पृथक् करता हूँ।२।।
वस्तुतः साधक को अन्तः और बाह्य सभी बन्धनरूप गांठों से मुक्त होकर जीवनयात्रा पूरी करनी चाहिए। जो गतिशील और स्थित (वस एवं स्थावर)- सभी प्राणियों के प्रति समभाव से युक्त है, वही जिनशासन में सामायिक से युक्त कहा गया है। और साधक समता से ही श्रमण कहलाता है। शत्रु-मित्र में, प्रशंसा-निन्दा में, लाभ-अलाभ में, तृण और स्वर्ण में जब समभाव रहता है, तभी उसे प्रव्रज्या या दीक्षा कहा जाता है। दीक्षा यथार्थतः आत्मसंस्कार का ही नामान्तर है। मानवीय चेतना, भाव, ज्ञान और संकल्प को सम्यक दिशा में नियोजित करने का जो प्रयास है, वही दीक्षा है। दीक्षा शब्द दी+क्षा से निर्मित हुआ है। इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति को स्पष्ट करते हुए किसी संस्कृत के विद्वान् ने कहा है - १. द्रष्टव्य - जैनेन्द्र-सिद्धान्त-कोश, तृतीय भाग, पृष्ठ १५० २. करेमि भन्ते ! सामाइयं, सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि, जावजीवाए तिविहं तिविहेणं
मणेणं, वायाए, कारणं न करेमि, न कारवेमि, करंतपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते !
पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि।- आवश्यक-सूत्र (१.१) ३. गंथेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए। - आचारांग (१.८. ८. ११) ४. जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ।
तस्स सामाइयं होइ, इह केवलिभासियं॥ - अनुयोगद्वार (१५०.२) ५. समयाए समणो होइ। - उत्तराध्ययन (२५.३२) ६. सत्त मित्ते य समा पसंसणिंदा अलद्धिलद्धिसमा।
तणकणए समभावा पवएज्जा एरिसा भणिया॥- बोधपाहुड़ (४७)
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