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समयसुन्दर की रचनाएँ
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दक्षिण भारत की चम्पापुरी नामक नगरी में सागरदत्त नामक समृद्ध सार्थवाह की पत्नी भद्रा की कुक्षी से नागश्री के जीव ने जन्म प्राप्त किया। उसका नामकरण 'सुकुमालिका' हुआ।
जिनदत्त सार्थवाह ही धर्मपत्नी इन्द्रदत्ता के पुत्र सागर ने खेल-खेल में उसी के साथ विवाह करने का निश्चय किया। दोनों का विवाह हो गया, परन्तु विवाह होने पर भी पति द्वारा उसका परित्याग कर दिया गया, क्योंकि सुकुमालिका की देह का स्पर्श उसे तलवार की धार जैसा तीक्ष्ण एवं पावक जैसा उष्ण लगा। आग्रह करने पर सागर कहता है कि मैं मृत्यु का आलिंगन कर सकता हूँ, लेकिन सुकुमालिका का तो स्पर्श भी सहन नहीं कर सकता।
सुकुमालिका का एक दिन भिखारी के साथ पुनर्विवाह किया गया, किन्तु वह भी उसका अंग-स्पर्श सहन न कर सका और सागर की तरह वह भी रात में ही उसे छोड़कर भाग गया। अन्त में उसके पिता ने निराश होकर उससे कहा, 'पुत्री ! तेरे पापकर्म का उदय है, उसे सन्तोष के साथ भोग ।' पिता ने दानशाला खोल दी । सुकुमालिका दान देती हुई अपना समय व्यतीत करने गली ।
एक बार गोपालिका नामक साध्वी का भिक्षा के लिए उसके यहाँ आगमन हुआ। सुकुमालिका ने अपना दुःखित आत्म-वृत्त सुनाया और दुःख से मुक्ति की युक्ति पूछी। साध्वी ने उसे उपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर उसने साध्वी - दीक्षा ग्रहण कर ली । आतापना लेते हुए एक दिन साध्वी सुकुमालिका ने पाँच पुरुषों के साथ विलास करती एक वेश्या को देखा। उसके अन्तरतम में दबी वासना उद्दीप्त हो उठी। उसके मन में भी इसी तरह के सुखभोग की लालसा पैदा हुई । उसने निदान (संकल्प) किया कि 'मेरी तपस्या का फल हो, तो मैं भी इसी प्रकार पाँच पतियों से विलास करूँ।' निदान, साधक जीवन का शल्य है और शल्य से तीव्र कर्मबन्ध होता है। इस प्रकार सुकुमालिका ने अपनी साधना को सांसारिक सुखभोग प्राप्त करने के लिए नष्ट कर दिया। आयुष्य पूर्ण होने पर वह देवगति में देव-गणिका के रूप में उत्पन्न हुई ।
देव - पर्याय का अन्त होने पर उसका जन्म पंचाल देश की कंपिला नामक नगरी के राजा द्रुपद की कन्या के रूप में हुआ । यौवन- वय में उसके स्वयंवर का आयोजन किया गया। स्वयंवर में वासुदेव कृष्ण, पाण्डुव आदि अनेक राजा उपस्थित हुए। द्रौपदी ने पाँचों पाण्डवों का वरण किया। इस पर किसी ने कोई आपत्ति नहीं की, मानो वह कोई विशेष घटना नहीं थी । इससे तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ( महाभारत में द्रौपदी के वरण का श्रेय अर्जुन को उसकी धनुर्विद्या के कौशल से प्राप्त होता है, जबकि जैन- परम्परा में द्रौपदी पाँचों पाण्डवों का एक ही साथ वरण करती है । इस वरण में उसके पूर्वभव का 'निदान' ही कारण है ।)
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