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समयसुन्दर की रचनाएँ
१८१ - इस रास में कवि ने सर्वप्रथम शत्रुजय का माहात्म्य छ: गाथाओं में बताया है। पश्चात् पहली ढाल में शत्रुजय के अन्य इक्कीस नामों का वर्णन किया है, जो कि पाँच कड़ियों में आबद्ध है। छः दोहों में तीर्थ का विस्तार-क्षेत्र बताकर दूसरी ढाल में इस तीर्थ पर कौन-कौन से महापुरुष पधारे और सिद्ध हुए, उनका संक्षेप में निर्देश किया गया है। इस ढाल में बारह कड़ियाँ हैं। तीसरी तथा चौथी ढाल में शत्रुजय तीर्थ का उद्धार करने वाले सोलह दानदाताओं का सूचन किया हुआ है, जिनमें भरत का नाम प्रमुख है। वे ही सर्वप्रथम वहाँ चतुर्विध संघ लेकर गये और उन्होंने ही सर्वप्रथम वहाँ प्रभु ऋषभदेव का जिनालय बनवाया। तीसरी ढाल में अठारह और चौथी ढाल में बीस गाथाएँ हैं। आगे आठ दोहों में पुनः शत्रुजय की महिमा प्रस्तुत कर पांचवीं ढाल में बारह कड़ियों में यह लिखा है कि इस तीर्थ में जाकर मनुष्य यदि अपने पापों की आलोचना करता है, तो वह पाप-मुक्त हो जाता है। अन्तिम छठी ढाल महत्त्वपूर्ण है। इसमें तेईस गाथाओं में शत्रुजय की तत्कालीन स्थिति का आँखों-देखा चित्रण है। रास में सर्वगाथा १०८ हैं। यह रास कवि ने नागौर जनपद में वि० सं० १६८२, श्रावण कृष्ण पक्ष में लिखा है -
संवत् सोल सइ व्यासीयइ ए, श्रावणवदि सुखकार।
रास भण्यउ सेर्जेज तणउ, नगर नागोर मझार ॥ प्रस्तुत रास की ऐतिहासिक साहित्य में गणना की जाती है। इस रास की परवर्ती हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में रास के आरम्भ में दो संस्कृत श्लोक और रास के अन्त में दो हिन्दी गाथाएँ भी देखने को मिलती हैं। ४.१.१० वस्तुपाल-तेजपाल-रास
रास-साहित्य में कवि समयसुन्दर की यह कृति काफी लघु है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व की है। इसमें कवि ने वस्तुपाल-तेजपाल की प्रगाढ़ धर्मनिष्ठता, उनके द्वारा बनवाये गये मन्दिरों एवं धर्मकार्यों का विस्तृत विवरण दिया है। इन्हीं द्वारा निर्मित आबू का देलवाड़ा का मन्दिर आज विश्व का अद्वितीय मन्दिर है। कला की दृष्टि से तो वह ताजमहल से भी उत्तम कोटि का है।
वस्तुपाल-तेजपाल के सम्बन्ध में कवि ने लिखा है कि वे पोरवाड़-वंश के तिलक और जिनशासन के श्रृंगार थे। वे पाटण के निवासी थे। वस्तुपाल के पिता का नाम सोम तथा माता का नाम कुंवरि था और तेजपाल के पिता का नाम आसराज और माता का नाम रतन था। वस्तुपाल एवं तेजपाल धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ शूरवीर एवं राज्य-मन्त्री भी थे। कवि ने दो ढालों में इनके धर्मकृत्यों की अनुमोदना करते हुए उनका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है; यद्यपि वर्णन में कही-कहीं अतिशयोक्ति भी प्रतीत होती है।
१. जैन साहित्य नो इतिहास, पृष्ठ ६१६
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