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समयसुन्दर की रचनाएँ
१६७ नल ने उसे आग से निकाल दिया, किन्तु सर्प ने नल को काट डाला। यह सर्प नल का पिता निषध था, जो मृत्यु पश्चात् देव बना और सर्प का रूप धारण किया हुआ था। इसके दंश से नल का शरीर कूबड़ा और कुरूप हो गया, किन्तु सर्प ने उसे ऐसे वस्त्र और आभूषण दिये, जिन्हें पहनने से वह अपना मूल रूप धारण कर सकता था। रूप कुरूप और नाम हुंडिक धारण करके वह सुसमापुर (सूषमापुर या सुंसुभारपुर) पहुँचा। वहाँ उसने एक पागल-उन्मत्त हाथी को वश में किया। फलस्वरूप वहाँ के राजा दधिपर्ण ने इस कबडे रूप नल को आदर दिया एवं उसे अपने पास ही रख लिया। इसी के साथ पाँच ढालों में प्रणीत दूसरा खण्ड पूर्ण हो जाता है।
तृतीय खण्ड में कथा का विकास त्वरित गति से हुआ है। दधिपर्ण राजा ने इंडिक (नल) से उसका परिचय पूछा। हुंडिक ने अपने को नल राजा का रसोइया और सर्वविद्या-ज्ञाता बताया। नल राजा अपने छोटे भाई कूबर के साथ जुए में हार जाने से दवदन्ती के संग वनवास के लिए निकल गये। अब सुना जाता है कि नल का देहावसान हो गया; अतः मैं इस तरफ आ गया हूँ। हुंडिक द्वारा नल की मृत्यु का समाचार जानकर दधिपर्ण को अत्यधिक दुःख हुआ।
हुंडिक ने दधिपर्ण की 'सूर्थपाक' और 'रसवती पाक' का भोजन कराकर बहुत प्रसन्न किया। एक दिन हुंडिक एक तालाब के किनारे उदासीन बैठा था। वहाँ एक ब्राह्मण पथिक विश्राम के लिए आया और परस्पर गीत-गोष्ठी होने लगी। गोष्ठी में उसने दवदन्ती जैसी स्त्री का परित्याग करने वाले नल की निन्दा की। हुंडिक की आँखें द्रवित हो गईं। हुंडिक ने दवदन्ती की वर्तमान स्थिति को जानने हेतु अनभिज्ञ होकर ब्राह्मण से दवदन्ती के विषय में पूछा। पथिक ने सम्पूर्ण वस्तु-स्थिति बताई।
दवदन्ती जगने पर पति को न पाकर उसे ढूंढ़ने लगी, न मिलने पर वह बहुत ही निराश हो गई। विरह एवं कष्टों को उसने भाग्य की विडम्बना ही समझा और चन्द्र के द्वारा अपने पति को हृदय-द्रावक संदेश भेजा। फिर दवदन्ती ने अपने वस्त्र पर लिखित अक्षरों को पढ़ा और वह पीहर के लिए रवाना हो गई। मार्ग में व्यापारियों के एक सार्थ के साथ वह मिल गई। इस सार्थ पर एक चोरों के दल ने आक्रमण किया। तदर्थ दवदन्ती ने सिंहनीवत् साहस करके चोरों को भगा दिया। सार्थ ने यह उपकार मानकर उसे कुलदेवी के रूप में मान्य किया।
भारी वर्षा के कारण सार्थ बीच में ही रुक गया। अत: दवदन्ती उसे छोड़कर गुप्त रूप से आगे चल दी। आगे उसे एक राक्षस मिला, जो दवदन्ती का भक्षण करना चाहता था। दवदन्ती ने उसे कहा- मुझे मरने का भय नहीं है, परन्तु मुझ जैसी शीलवती नारी को खाने से तूं भस्म हो जाएगा। यह सुनकर राक्षस सन्तुष्ट हुआ और उसे वर मांगने को कहा। दवदन्ती ने कहा - मेरा प्रिय मुझे कब मिलेगा? राक्षस बोला – बारहवें वर्ष । राक्षस के
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