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________________ १२४ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व २.४ वेरथय-वृत्ति प्रस्तुत कृति का नाम नाहटा-बन्धुओं ने वेरथयवृत्ति-विवेचन' बताया है और महोपाध्याय विनयसागर ने 'वेट्थपद विवेचना'। वस्तुतः दोनों एक ही नाम हैं। प्रथम नाम प्राकृत में है और द्वितीय संस्कृत में। इस वृत्ति की पाण्डुलिपि हमें प्राप्त नहीं हुई। नाहटा-बन्धुओं ने यह तो सूचित किया है कि इस वृत्ति की समयसुन्दर द्वारा स्वहस्त-लिखित प्रति प्राप्त होती है, जो दो पत्रों में है; परन्तु यह प्रति किस ज्ञान-भण्डार में है, इसका उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। महोपाध्याय विनयसागर के संकेतानुसार इस कृति की प्रति अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में है३, किन्तु खोज करवाने पर प्रति ग्रन्थालय में नहीं पायी गई। प्रस्तुत वृत्ति की रचना विक्रम नगर में संवत् १६८४ में हुई थी, जैसा कि वृत्ति के अन्त में लिखा है - सं० १६८४ वर्षे अक्षयतृतीयां श्रीविक्रमनगरे श्रीसमयसुन्दरोपाध्यायैर्व्यलेखि॥ २.५ कल्पलता _ 'कल्पलता' श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा प्रणीत 'कल्पसूत्र' ग्रन्थ पर लिखी गई एक बृहद् टीका है। यद्यपि कल्पसूत्र' एक स्वतन्त्र ग्रन्थ माना जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह दशाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र का 'पज्जोसवणाकप्प' (पर्युषणा कल्प) नाम का आठवाँ अध्ययन मात्र है। पर्युषण-पर्व में इसका प्रतिवर्ष वांचन होने से यह ग्रन्थ जैन धर्म के आगमिक ग्रन्थों में सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ हो गया है और प्रचार-प्रसार की दृष्टि से इसकी महत्ता आज भी सर्वोपरि है। इस 'कल्पसूत्र' की समय-समय पर लिखित अनेक टीकाएँ, बालावबोध व्याख्याएँ, अवचूरियाँ, अन्तर्वाच्य या स्तवक संज्ञक और अनुवाद आदि प्राप्त होते हैं। इनमें से लगभग ९० टीकादि ग्रन्थों का नामोल्लेख महोपाध्याय विनयसागर ने किया है,६ जिनमें जिनप्रभसूरि कृत् 'संदेहविषौषधि', धर्मसागर कृत् 'कल्पकिरणावली', विनयविजय कृत् 'कल्पसुबोधिका', लक्ष्मीवल्लभ कृत् 'कल्पद्रुमकलिका-टीका', समयसुन्दर कुत् 'कल्पलता', श्रुतसागर कृत् 'कौमुदी' आदि उल्लेखनीय हैं । कवि ने कल्पलता' टीका की रचना करने के उद्देश्य का उल्लेख करते हुए लिखा है - १. सीताराम-चौपाई, भूमिका, पृष्ठ ५५ । २. समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, महोपाध्याय समयसुन्दर, पृष्ठ ५१ ३. सीताराम-चौपाई, भूमिका, पृष्ठ ५५ ४. उद्धृत – समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, महोपाध्याय समयसुन्दर, पृष्ठ ५१ ५. द्रष्टव्य – कल्पसूत्र प्रास्ताविक, मुनि पुण्यविजय, पृष्ठ ८-९ ६. द्रष्टव्य - कप्पसुत्तं, भूमिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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