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________________ १०८ महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व कि वर्त्तमान काल में जो व्यक्ति साधुवेषधारी हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर पदविहार करते हैं, भाषा-विनय आदि में प्रवीण हैं, उन्हें मुनि मानकर वंदन करना चाहिए। ग्यारहवाँ विचार – इसमें ' आवश्यकबृहद्वृत्ति' आदि के आधार पर यह कहा गया है कि मुनि को उसके माता-पिता, ज्येष्ठ भाई आदि लोकगर्हा आदि के कारण वंदन न करे । बारहवाँ विचार - इसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि संमूर्छिम मनुष्य मल, मूत्र, वीर्य, स्त्री- पुरुष - संयोग आदि चौदह स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं । तेरहवाँ विचार - इसमें 'सयणासन्न काले' इस गाथा की विस्तृत व्याख्या की गई है। चौदहवाँ विचार - इसमें यह बतलाया गया है कि मुनि को छह कारणों से आहार ग्रहण करना चाहिये - १. वेदना अर्थात् क्षुधा की शान्ति के लिए, २. वैयावृत्य अर्थात् आचार्यादि की सेवा के लिए, ३. ईर्यापथ अर्थात् मार्ग में गमनागमन की निर्दोष प्रवृत्ति के लिए, संयम अर्थात् मुनिधर्म की रक्षा के लिए, ५. प्राणप्रत्यय अर्थात् जीवन-रक्षा के लिए और ६. धर्मचिन्ता अर्थात् स्वाध्याय आदि के लिए । ४. पन्द्रहवाँ विचार – इसमें जिनप्रभसूरि रचित ग्रन्थ के आधार पर गृहप्रतिमा-पूजन की far बतायी गई है । सोलहवाँ विचार - इसमें गृह आदि में विलम्बित जिन-बिम्ब (संभवत : चल - प्रतिमा ) की पूजा की विधि का वर्णन किया है। सतरहवाँ विचार - इसमें 'योगशास्त्रसूत्रवृत्ति' के आधार पर यह बताया गया है रात्रि-भोजन का त्याग करने वाले व्यक्ति को कम से कम १ मुहूर्त्तपूर्व भोजन ग्रहण कर लेना चाहिए। यदि इस अवधि के पश्चात् वह भोजन करता है, तो उसे रात्रिभोजन का दोष लगता है 1 अठारहवाँ विचार - इसमें यह प्रश्न उठाया गया है कि रात्रि में भोजन करते समय मक्खी आदि जीवों की हिंसा नहीं होती है, अतः रात्रि भोजन अनुचित नहीं है । इस प्रश्न का समाधान करते हुए 'सार्द्धदिनकृत्य' आदि विविध ग्रन्थों के आधार पर बताया गया है कि रात्रि में भोजन करना अनुचित है, क्योंकि रात्रि में कुन्थु, पिप्पली आदि अनेक जीवों की हिंसा की सम्भावना है। उन्नीसवाँ विचार – इसमें बताया गया है कि मैथुनारूढ़ स्त्री- पुरुष नव लक्ष द्वीन्द्रिय, नवलक्ष गर्भज पंचेन्द्रिय एवं असंख्यात् सम्मूर्छिम- पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करते हैं । बीसवाँ विचार - इसमें यह बताया गया है कि दोनों जंघाओं तक पानी लगे, वह 'लेप' तथा उससे ऊपर पानी लगने को 'ऊपरी लेप' कहते हैं । इक्कीसवाँ विचार - इसमें जैन मान्यतानुसार दोनों सूर्यों की मेरु पर्वत की परिक्रमा के क्रम का उल्लेख किया गया है। बाईसवाँ विचार - इसमें आसीविष जीवों का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि इनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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