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________________ १०० महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वे हैं, जिनकी अपनी योनि के अनुरूप इन्द्रिय, शरीर आदि होते हुए भी उनका उपयोग नहीं कर पाते हैं । (४२) इस प्रकरण में ‘स्थानांगसूत्र' के आधार पर भूकम्प के हेतु का विवरण देते हुए यह बताया गया है कि पूर्व पृथ्वी के भूकम्प का कारण तो घनवात आदि का प्रकम्पन है; आंशिक रूप से भूकम्प के अनेक कारण बताये गये हैं, जैस - रत्नप्रभा - - पृथ्वी के पुद्गलों का विचलन होना अथवा नागकुमार स्वर्णकुमार आदि अथवा महोरग नामक व्यन्तरविशेष का वैक्रिय - शरीर करना इत्यादि । (४३) इस अधिकार में यह प्रश्न उठाया गया है कि प्रथम मेखला पर मेरु पर्वत ५०० योजन विस्तीर्ण है और उसमें इतना ही विस्तीर्ण नन्दनवन है । उस नन्दनवन में १००० योजन विस्तीर्ण बलकूट है, तो ५०० योजन विस्तीर्ण नन्दनवन में १००० योजन विस्तीर्ण बलकूट कैसे समाहित हो सकता है? इस समस्या का समाधान 'बृहत्क्षेत्र - समाससूत्र' के आधार पर करते हुए यह बताया गया है कि बलकूट ५०० योजन नन्दवन में और ५०० योजन उसके बाहर आकाश में विस्तीर्ण है । (४४) प्रस्तुत प्रकरण में यह कहा गया है कि उन्मग्न-सलिला और निमग्न-सलिला नाम की दो नदियों का उद्गम वैताढ्य पर्वत की भित्ति से होता है और अन्त में दोनों सिन्धुनदी में प्रविष्ट हो जाती हैं। इनका उल्लेख मलयगिरि कृत 'बृहत्क्षेत्र - समास - सूत्रवृत्ति' में हुआ है। (४५) प्रस्तुत अधिकार में ' श्रीबृहत्क्षेत्रसमाससूत्रवृत्ति' के अनुसार लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि हाथी दांत का अग्रभाग असिधारा के समान नुकीला होता है, सुई के समान नहीं । -- (४६) इस सन्दर्भ में मलयगिरि द्वारा स्वरचित 'बृहत्क्षेत्रसमाससूत्रवृत्ति' के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि शीता और शीतोदा नामधेयक दो नदियों की धाराएँ लवणसमुद्र में अत्यन्त वेग से गिरकर 'दकसीमा' उपनामक आवास पवत से टकराकर वापस लौट जाती हैं । (४७) प्रस्तुत विचार में यह उल्लिखित है कि १. आदित्यसंवत्सर, २. ऋतुसंवत्सर, ३. चन्द्रसंवत्सर, ४. नक्षत्रसंवत्सर एवं ५ अभिवर्द्धित संवत्सर का विस्तृत उल्लेख हमें 'श्रीज्योतिष्करणसूत्र' और उसकी वृत्ति आदि में उपलब्ध होता है । कृतिकार ने इस प्रकरण में उक्त संवत्सरों का विस्तारपूर्वक विवेचन भी किया है। (४८) इस अधिकार में विविध ग्रन्थों का प्रमाण देते हुए यह प्रमाणित किया गया है कि केवल के मन का प्रयोज्न अनुत्तर देवादि द्वारा लोकालोक स्वरूप के विषय में किये जाने वाले प्रश्नों का निराकरण करने के लिए है। — (४९) इसमें यह लिखा गया है कि सौधर्म, ईशान आदि देवों की कामाभिलाषा को जानकर देवियाँ उसे पूर्ण करती हैं। दिव्यप्रभाव अथवा स्वभाव से देवों के शुक्रपुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012071
Book TitleMahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabh
PublisherJain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
Publication Year
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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