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________________ ७०४ भीमद् विजयराजेन्द्ररि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन स्पष्ट करनेवाले कथानकों को उन्होंने धर्मप्रचार का माध्यम बनाया। इसके पश्चात् जैनतीर्थंकरों एवं आचार्यों के गुणवर्णनात्मक एवं ऐतिहासिक काव्यों का नंबर आता है। इससे जनता के सामने महापुरुषों के जीवन-आदर्श सहज रूप से उपस्थित होते हैं। इन दोनों प्रकार के साहित्य से जनता को अपने जीवन को सुधारने में एवं नैतिक तथा धार्मिक आदर्शों से परिपूर्ण करने में बड़ी प्रेरणा मिली । राजस्थानी-जैन-साहित्य के महत्त्व के संबंध में दो बातें उल्लेखनीय हैं--(१) भाषा-विज्ञान की दृष्टि से उसका महत्त्व है (२) १३ वीं से १५ वीं शताब्दी तक का जैनेतर राजस्थानी स्वतंत्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है । उसकी पूर्ति राजस्थानी-जैन-साहित्य करता है । अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा के विकास के सूत्र राजस्थानी-जैन-साहित्य द्वारा ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि जब से राजस्थानी भाषा में ग्रन्थों का निर्माण प्रारम्भ हुआ तबसे प्रत्येक शताब्दी के प्रत्येक चरण की जैन-रचनायें उपलब्ध हैं। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जैनेतर राजस्थानी रचनाओं की प्रतियां समकालीन लिखी हुई प्राप्त नहीं होती, जबकि राजस्थानी की जैन रचनाओं की तत्कालीन लिखित प्रतियां प्राप्त हैं। लोकभाषा में रचे हुए ग्रंथों की भाषा की प्रमाणिकता के संबंध में तत्कालीन प्रतियों की अनुपलब्धि में ठीक तरह कुछ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि लेखकों द्वारा भाषा और बहुत बार तो पाठ एवं शब्दों में परिवर्तन कर दिया जाता है । लोकप्रिय प्रसिद्ध ग्रंथों में तो समय-समय पर परवर्ती लेखकों द्वारा पाठप्रक्षेप रूप परिवर्तन होता ही रहता है । मौखिक साहित्य के संबंध में यह बात और भी विशेष रूप से लागू होती है। जैन-भंडारों में जो हस्तलिखित प्रतिये उपलब्ध हैं उनमें से अधिकांश सुशिक्षित मुनियों के द्वारा लिखी होने से शुद्ध भी विशेष रूप से मिलती हैं। जैन-विद्वानों ने स्वयं ग्रंथ निर्माण करने के साथ-साथ दूसरों के रचे ग्रंथों पर विशद टीकाएं भी बनाई हैं । ' किसन रुकमणी वेलि' को ही लीजिये-इस पर लाखा चारण की जैनेतर टीका एक ही उपलब्ध है, पर जैन-विद्वानों द्वारा रचित ६-७ टीकाएं प्राप्त हो चुकी हैं, जिनमें से दो टीकाएं तो संस्कृत भाषा में भी हैं। इसी प्रकार हिंदी और संस्कृत के जैनेतर सर्वोपयोगी ग्रंथों पर भी जैनविद्वानों ने राजस्थानी भाषा में टीकाएं लिखी हैं। उदाहरणार्थ:--- संस्कृत के भर्तृहरिशतक, अमरुशतक, लघुस्तोत्र, सारस्वत व्याकरण आदि पर जैन यतियों द्वारा रचित राजस्थानी टीकाएं प्राप्त हैं। भर्तृहरिशतक की तो रूपचंद और लक्ष्मीवल्लभ की दो टीकाएं हैं । हिंदी ग्रंथों में से 'रसिक प्रिया' पर कुशलधीर की और केशवदास के नख-शिख की राजस्थानी टीका उपलब्ध हैं । अनेक राजस्थानी ग्रंथों को बचा रखने का श्रेय भी जैनविद्वानों को ही है। जैसे-राजस्थानी भाषा के जैनेतर सब से प्राचीन
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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