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________________ ६६६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन सुन्दरदास की भांति, गूढ़-सगूढ़ दार्शनिक बातों के स्पष्टीकरण में भी सफल थे। इनकी कविताओं के निम्नलिखित कतिपय उदाहरणों से भी पता चलेगा कि इनकी वर्णन-शैली शुद्ध संतसाहित्य की ही थी। जैसे चेतन तूं तिहुँ काल अकेला, नदी नाव संजोग मिलै ज्यों, त्यों कुटुम्ब का मेला ॥ टेक ॥ यह संसार असार रूप सब, ज्यों यह पेखन(१)खेला । सुख सम्पति शरीर जल बुदबुद, विनशत नाही बेला ॥ कहत बनारसि मिथ्या मत तज, होय सुगुरु का चेला । तास वचन परतीत आन जिय, होई सहज सुरझेला ॥२॥' इसी प्रकार वे फिर अन्यत्र भी कहते हैं भोंद् भाई समुझ शबद यह मेरा, जो तूं देखै इन आंखिन सौं, तामें कछु न तेरा ॥ टेक ॥ ए आँखै भ्रम ही सौं उपजी, भ्रम ही के रस पागी । जहं जहं भ्रम तहं तहं इनको श्रम, तूं इनही को रागी । तेरे दृग मुद्रित घट अंतर, अंधरूप तूं डोले । कै तो सहज खुलै वे आंखे, के गुरु संगति खोले ॥ ८ ॥ तथा, वा दिन को कर सोच जिय, मनमें । बनज किया व्यापारी तूने, टांडा लादा भारी रे । ओछी पूंजी जूआ खेला, आखिर बाजी हारी रे ॥ कहत बनारसि सुनि भवि प्राणि, यह पद है निरवाना रे । जीवन मरन कियो सो नाही, सर पर काला निशाना रे ॥' परन्तु कवि बनारसीदास की रचनाओं के अंतर्गत केवल इस प्रकार के विरक्ति सूचक भावों के ही वर्णन नहीं पाये जाते। उनमें प्रेम और विरह संबंधी वैसी पंक्तियों के भी बहुत से १. बनारसीविलास जयपुर, सं० २०११, पृ. २३२ । २. वही, पृ० २३४-५ । ३. 'प्रो. राजकुमार जैन' : 'अध्यात्मपदावली' काशी सन् १९५४ ई. पृ० २०३-५ ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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