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________________ साहित्य जैनधर्म की हिन्दी को देन । आगमों को लिपिबद्ध करने में और भी पांच शताब्दियों की देर लगी । पालि पिटक जिस समय लिपिवद्ध किया गया, उस समय पालियों का युग अभी भी था, यद्यपि वह बहुत जल्दी ही समाप्त होनेवाला था। लेकिन जैन आगम जिस समय लिपि-बद्ध किये गये, उस समय पालियों का युग ही समाप्त नहीं हो चुका था; बल्कि प्राकृतका युग भी समाप्त ही होनेवाला था । यदि पालियों के युग में जैन-आगम लिपिबद्ध हुये होते, तो उसकी भाषा वही होती । कंठस्थ होने का मतलब यह नहीं है कि हर पीढ़ी अपनी इच्छानुसार भाषा में हर तरह के परिवर्तन करने के लिये स्वतंत्र थी, यद्यपि अनजाने भी ऐसा होने की सम्भावना तो थी ही । इस लिये हम यह नहीं कहते कि जैन-आगम की भाषा वही प्राकृत थी, जो उसके वलभी में लिपिबद्ध होने के समय शिष्ट मानी जाती थी। यह बात उस भाषा के बारे में हुई जो कि “ जिनों के मुख" की पवित्र भाषा होने के विचार से कुछ स्थायित्व रखती थी। इस के अतिरिक्त दोनों ही श्रमणमार्गी धर्म जन-निरुक्तियों का बराबर उपयोग लेते और उन में साहित्य-सृजन करते थे । इस बातमें जैन बोद्धों से भी दो कदम आगे थे । प्राकृत-काल में भारत में जिस महायान बौद्ध-धर्म की प्रधानता स्थापित हो गई, वह गाथा-संस्कृत और शुद्ध संस्कृत का पक्षपाती था; लेकिन, जैन प्राकृत के समर्थक थे । इस समय के उनके कितने ही सुन्दर प्राकृत-काव्य इसका साक्षी देते हैं । प्राकृत-काल से लेकर अब तक जैन-धर्म में यह परम्परा बड़ी दृढ़ता के साथ जारी है। वे देश और काल के अनुसार उपस्थित हुई तत्कालीन भाषा के माध्यम को खुले दिल से स्वीकार करते हैं । यदि जैन-धर्मने रक्षा न की होती तो प्राकृत के आधे दर्जन से अधिक ग्रंथ हमारे पास न रहते, और हमारा प्राकृत-साहित्य आज की तरह समृद्ध न होता। यदि वौद्धों की तरह जैन-धर्म भी भारत से विलुप्त हो गया होता तो हमारे विद्वान् यह भी मानने के लिये तैयार न होते कि प्राकृत के बाद से लेकर मुसलमानों के आने (६००१२०० ई.) तक हमारे यहां अपभ्रंश जैसी एक समृद्ध भाषा रही। आज अपभ्रंशने अपने अस्तित्व का लोहा तो मनवा लिया है, लेकिन उसकी प्रकृति समझने में अभी कितने ही मुझंति सूरयः ( विद्वान् भी ढिलमिल यकीन हैं ) लगेंगे। अपभ्रंश के स्वयम्भू, पुष्पदन्त, कनकामर आदि दर्जनों कवियों, महाकवियों को दे कर जो काम जैन-धर्मने किया है, केवल वही इतना मूल्य रखता है कि जिस के लिये हम सदा उसके कृतज्ञ रहेंगे । अपभ्रंशके विषय में अभी भी जैन-भण्डारों से बहुत सम्भावना है। विशेषकर उसके गद्य-साहित्य के खोज निकालने की बड़ी आवश्यकता है। यह निश्चित ही है कि ज्ञानपंचमी कथा जैसी कितनी ही पुस्तकें भक्तों के लिये तत्कालीन भाषा में अवश्य लिखी गई होंगी।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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