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________________ ६३६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ हिन्दी जैन नारी इस बाणी सुणी पिय की पगड़ी साथ । सती भई आणंद सौ, शिवपुर दौनौ हाथ ॥ २३ ॥ xxx गोरा बादल की कथा, सूरां अधिक सुहाय । सुणतां जागइ सूरमा, आणंद अंग न माय ॥ विशेष परिचय के लिये देखिये हिन्दुस्तानी अप्रैल १९३८ पृ० १५९ । महाकवि आनंदघन आप का काल विद्वान् वि. सं. १६८० से वि. सं. १७३० के मध्य में स्थिर करते हैं । आप श्वेताम्बर और दिगंबर दोनों जैन परम्परा के कवियों में सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। आप की रचनाओं को जेनेतर विद्वान् भी हिन्दी-साहित्य की अमूल्य रत्नराशि मानते हैं। आप की दो कृतियां 'आनंदघन चौवीसी' राजस्थानी और 'आनंदघन बहत्तरी ' हिन्दी प्रसिद्ध हैं। अध्यात्मज्ञान आप का बहुत ही गंमीर और ऊंचा था और फलतः आप की रचनाओं में तत्त्वगाम्भीर्य चरमता को पहुंच गया है और साधारण पुरुष के लिये उसका ठीक २ अर्थ समझ लेना बड़ा ही कठिन हो गया है। कई विद्वान् आप की कृतियों को सानुवाद प्रकाशित करने का प्रयास कर चुके हैं, परन्तु अभी तक वे इस दिशा में पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं। आप के पद्यों का सत्यार्थ पा जाना बहुत बड़े अनुभवी अध्यात्मज्ञानी और भाषा-तत्त्वदर्शी का ही. कार्य है। वैसे आप की रचनायें पानी-सी बड़ी सरल प्रतीत होती हैं, परन्तु डुबकी लगाने पर उनकी अगाधता ज्ञात होती है और पैदे तक नहीं जा कर थोड़े दूर से ही ऊपर लौट आना होता है। आनंदघन का सही २ परिचय भी अभीतक प्राप्त नहीं हो सका है। जैनेतर विद्वान् आनंदघन को भक्तकवि के रूप में स्वीकार करते हैं और जैन विद्वान् उनको जिनभक्त कहते हैं। इसमें तो कोई शंका नहीं कि वे जैन मतानुयायी थे। जिनेश्वर के प्रति वे श्रमण-भक्त थे। कुछ उनकी रचनाओं के उदाहरण देखिये ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे ओर न चाहूं रे कंत । रीझ्यो साहिब संग न परिहरे रे भांगे सादि अनंत ॥ प्रीत-सगाइ रे जग मांहे सहु करे रे प्रीत-सगाई न कोय । प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे सोपाधिक धन खोय ॥ ऋषभ-स्त.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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