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भीमद् विजयराजेन्द्रप्रि-स्मारक-पंथ ललितकला और के वंशी है तो कोई प्रमदा नृत्य में तल्लीन है। कोई सुन्दरी स्नानागार से निकलती हुई अपने बाल निचोड़ रही है और नीचे हंस उन पानी की बूंदों को मोती समझ कर अपनी चोंच खोले खड़ा है (१५०९)। किसी स्तम्भ ( जे० ५) पर वेणी-प्रसाधन का दृश्य है और किसी पर संगीतोत्सव का ( १५१ ) । इस प्रकार लोकजीवन के कितने ही दृश्य इन स्तम्भों पर चित्रित हैं। कुछ पर भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों से संबंधित विभिन्न जातककहानियों के (सं० जे०४ का पृष्ठभाग ) और कुछ पर महाभारत आदि के ( नं० १५१ ) दृश्य भी हैं। इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार के पशुपक्षी, लता-फूल आदि भी इन स्तंभों पर उत्कीर्ण किये गये हैं । इन वेदिकास्तम्भों को शृंगार और सौन्दर्य के जीते-जागते रूप कहने चाहिए जिन पर कलाकारोंने प्रकृति तथा मानव जगत् की सौन्दर्य राशि उपस्थित कर दी है ।
यक्षादिका चित्रण-मथुरा की जैन कला में यक्ष, किन्नर, गंधर्व, सुपर्ण तथा अप्सराओंकी अनेक मूर्तियां मिलती हैं। ये सुखसमृद्धि तथा विलास के प्रतिनिधि हैं । संगीत और नृत्य इनके प्रिय विषय हैं । यक्षों की प्रतिमाएं मथुरा-कला में सबसे अधिक मिली हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परखम नामक गांव से प्राप्त तृतीय श० ई० पूर्व की विशालकाय यक्षमूर्ति (सी० १) है । ऐसी एक दूसरी बड़ी मूर्ति मथुरा के बड़ौदा गांव से प्राप्त हुई है । ये मूर्तियां चारों ओर कोरकर बनाई गई हैं, जिससे उनका दर्शन चारे ओर से हो सके। कुषाणकाल में ऐसी ही मूर्तियों के समान विशालकाय बोधिसत्व प्रतिमाएं निर्मित की गई। ___यक्षोमें कुबेर तथा उनकी स्त्री हारीती का स्थान बड़े महत्व का है । इनकी अनेक मूर्तियां मथुरा में प्राप्त हुई हैं । कुबेर यक्षों के अधिपति तथा धन के देवता माने गये हैं। बौद्ध तथा हिंदू-इन दोनों धर्मों में इनका पूजन मिलता है । कुबेर जीवन के आनंदमय रूप के द्योतक हैं और इसीरूप में इनकी अधिकांश मूर्तियां मिली हैं।
शालभञ्जिका-प्राचीन भारत में प्रकृति के साथ मानव-जीवन का घनिष्ठ संबंध था। साहित्य में ही नहीं, कला में भी लता-वृक्षों, पशु-पक्षियों, नदी-सरोवरों आदि के साथ लोक-जीवन का गहरा संबंध मिलता है । इस प्रकृति-संबंधने अनेक उत्सवों को जन्म दिया, जिनमें एक 'शालमञ्जिका ' का उत्सव था। इस उत्सव के लिए मुख्यतः लाल फूलवाले अशोक ( रक्ताशोक ) को चुना गया। उत्सव के दिन नवोढ़ा या अन्य युवती, जिसके पैर आलता से रंगे हुए तथा आभूषणों से सज्जित होते, अशोक वृक्ष के पास जाती थी । वह एक हाथ से वृक्ष की डाल थामती और फिर पैर का मृदु आघात वृक्ष पर करती थी। इस उत्सव को 'अशोकदोहद ' या · अशोकोसिका ' कहते थे। यह उस ' कवि-समय' का न्यञ्जक है जिसके अनुसार युवती के चरणाभिघात से अशोक का पेड़ पुष्पित हो जाता है।