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________________ ५७२ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता में 1 इस गणनापद्धति का उल्लेख है । षट् खंडागम खण्ड १ भाग २ पुस्तक नं. ३ की प्रस्तावना में दिये गये पूर्व तक की गणना के नाम तो वही हैं, पर आगे के नामों में कुछ अन्तर है, उन्हें यहां दे रहा हूं । चौरासी पूर्व का नयुतांग, ८४ लाख नयुतांग का नयुत तथा इसी प्रकार ८४ और ८४ लाख गुणित क्रम से कुमुदांग और कुमुद, पद्मांग और पद्म, नलिनांग और नलिन, कमलांग और कमल, त्रुटितांग और त्रुटित, अटटांग, अटट, अममांग और अमम, हाहांग और हाहा, हुहांग और हुहु, लतांग और लता, तथा महालतांग और महालता क्रमशः होते हैं । फिर ८४ लाख गुणित क्रम से श्रीकल्प ( या शिरःकम्प ) हस्तप्रहेलित, (हस्तप्रहेलिका ) और अचलप ( चर्चिका ) होते हैं । ८४ को ३१ बार परस्पर गुणा करने से अचल की वर्षों का प्रमाण आता है । जो ९० शून्यांकों का होता है' । यद्यपि इन नयुतांग आदि कालगणनाओं का उल्लेख प्रस्तुत ( षट्खंडा गम ) में नहीं आया तथापि संख्यात् गणना की मान्यता का कुछ बोध कराने के लिए प्रस्तावना में दिया गया है । यह सब संख्यात् ( मध्यम ) का ही प्रमाण है । इससे कई गुना ऊपर जाकर उत्कृष्ट संख्या का परिमाण होता है । संख्यात् के तीन भेद हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । गणना का आदि (प्रारंभ ) एक से माना जाता है । किन्तु एक केवल वस्तु की सत्ता तो स्थापित करता, भेद को सूचित नहीं करता । भेद की सूचना दो से प्रारम्भ होती है । और इसी लिए दो को संख्यात् का आदि माना है । इस प्रकार जघन्य संख्यात् दो हैं । उत्कृष्ट संख्यात् आगे बतलाये जानेवाले जघन्य परीता संख्यात् से एक कम होता है । तथा इन दोनों छोरों के बीच जितनी भी संख्याएं पाई जाती हैं वे सब मध्यम संख्यात् के भेद हैं । असंख्यात् के तीन भेद हैं- परीत, युक्त और असंख्गात् और इन तीनों में से प्रत्येक पुनः जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का होता है । जघन्य परीता संख्यात् का प्रमाण अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ऐसे चार कुंडों को द्वीप समुद्रों की गणनानुसार सरसों से भरकर निकालने का प्रकार बतलाया गया है, जिसके लिए त्रिलोकसार गाथा १८ - ३५ देखिये । आगे बतलाये जानेवाले जघन्य युक्तासंख्यात् से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीता संख्यात् का प्रमाण मिलता है, तथा जघन्य और उत्कृष्ट परीत के बीच की सब गणना मध्यम परीता संख्यात् के भेदरूप हैं । जघन्य परीतासंख्यात् के वर्गित संवर्गित करने से अर्थात् उस राशि को उतने ही बार गुणितप्रगुणित करने से जघन्य युक्तासंख्यात् का प्रमाण प्राप्त होता है । आगे बतलाये १. त्रिलोकपन्नति में यह लिखा है । पर ८४ को ३१ बार गुणित करने पर ६० अंक प्रमाण की संख्या आती है। द्वाहृांग और हाहा संख्याओं के नाम राजवार्तिक व हरिवंशपुराण में नहीं मिळे ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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