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________________ और उसका प्रसार राजस्थान में जैनधर्म का ऐतिहासिक महत्त्व । भी इसी मंदिर को कुछ दान दिया। इसके पश्चात इसके पुत्र धवल ने इस मंदिर को ठीक करवाया और जैनधर्म की कीर्ति को फैलाने के लिए हर प्रकार का प्रयत्न किया । राजस्थान के भिन्न-भिन्न राज्यों में जैनधर्म इस प्रकार राजस्थान में जैनधर्मने प्राचीन समय में अच्छी उन्नति की। भिन्न-भिन्न रजवाड़ों में विभाजित होने के पश्चात् भी जैनधर्म फैलता ही चला गया। अनेक मंदिर बनाये गये। उनमें मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। अनेक शास्त्र लिखे गये। राजा लोग साधुओं को आदर की दृष्टि से देखते थे। भरतपुर राज्य में जैनधर्म:-दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र में जैन. धर्म बहुत प्रचलित था। अनेक मूर्तियाँ इस समय की यहां प्राप्त हुई हैं । दुर्गदेवने ऋष्ट समुच्चय की रचना लक्ष्मीनिवास राजा के समय कामा में की थी। बयाना में ११ वीं शताब्दी का जैन शिलालेख राजा विजयपाल के समय का है। मेवाड़ राज्य में जैनधर्म:-मेवाड़ के महाराणाओं की प्रेरणा से भी जैनधर्म को बहुत बल मिला । कुछ राजाओंने तो मंदिरों का निर्माण करवाया तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। जैनाचार्यों को आमंत्रित करके उन्होंने उनका उच्च सम्मान किया तथा उनके उपदेश से प्रभावित होकर पशुहिंसा बन्द करवा दी। राजा अल्लट के मन्त्रीने आधार में जैन मंदिर बनवाकर उसमें पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की । कोजरा के शिलालेख से पता चलता है कि राणा रायसी की स्त्री शृङ्गारदेवीने ११६७ ई. में पार्श्वनाथ के मंदिर का स्तम्भ बनाया । जिनप्रभसूरि क्षेत्रसिंह के समकालीन थे। उनके चित्तौड़ आने पर राजाने उनका भव्य स्वागत किया। महाराणा समरसिंह और उनकी माता जयतलदेवी देवेन्द्रसूरि के उपदेश से प्रभावित हुए तथा उनके भक्त हो गये। जयतलदेवीने पार्श्वनाथ का मंदिर बनाया । समरसिंहने इस मंदिर को दान में भूमि दी और राज्य में हिंसा को रोक दिया। महाराणा मोकल के खजांचीने १४२८ में महावीर का मंदिर बनाया। मोकल के पुत्र महाराणा कुम्भकरण के समय में तो जैनधर्म का अधिक प्रचार हुआ। इसके राज्य में अनेक मंदिर बने तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई । उसने स्वयंने सादड़ी' का विशाल जैन मंदिर बनाया । उसके पुत्र रायमल के समय भी जैनधर्म फैलता ही रहा । अनेक मंदिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा की गई। महाराणा प्रतापने श्रीहीरविजयसूरि को चित्तौड़ आने १. उसके समय में प्रसिद्ध राणकपुर का मंदिर बना यह लिखना उचित था। सादड़ी तो बाद में बसा है। लेखकने सन् अथवा संवत् सूचक शब्द भी कहीं २ नहीं दिये हैं। संपा० दौलतसिंह.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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