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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि स्मारक -ग्रंथ जैनधर्म की प्राचीनता जैनधर्म की प्रथम सर्वश्रेष्ठ विशेषता इसका दर्शन ( Philosophy ) है । भारत में अनेक मतमतान्तर जैसे बौद्ध, वेदान्त, सांख्य आदि हैं। इनमें किसी की भी फिलोसॉफी जैनधर्म के समान उत्कृष्ट नहीं है । अगर फिलोसॉफी के तुलनारूपी तराजू पर सब धर्मों की फिलोसॉफी को तोला जाय तो जैनधर्म की फिलोसॉफी का पलड़ा ही भारी रहेगा । पाश्चात्य विद्वान् मानते हैं कि जितनी सुगमता से जैनधर्म फिलोसॉफी समझाता है उतनी सुगमता से अन्य धर्म नहीं । जैनधर्म की फिलोसॉफी के समान गहन, गम्भीर और सरल फिलोसॉफी अन्य धर्मों में मिलना सर्वथा दुर्लभ है । ५३२ अन्य धर्मों की तरह जैनधर्म एकान्तवादी नहीं है - यह अनेकान्तवादी है। जैनधर्म में जीव, अजीव, पाप, पुण्य, आश्रत्र, संवर, निर्जरा, बन्ध मौर मोक्ष ये नवतत्व बताये गये हैं । आत्मज्ञान तो इसके समान अन्य धर्म में दिखाया ही नहीं । आत्मा का अमरत्व, उसका कर्म के साथ सम्बन्ध, बन्ध, मोक्ष आदि विषयों पर अत्यंत सचोट उल्लेख किया है । एक विद्वान कहता है कि " जैन साहित्य का पूर्ण अध्ययन जितनी सतर्कता से किया जायगा उतने ही उसमें नये २ तत्वरूपी रस उद्भूत होते जायँगे । " जैन शास्त्र आत्मा के तीन भेद करता है । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । श्रीमद् आनन्दघनजी ने तीनों स्वरूपका वर्णन इस स्तवन में सुन्दरता से दिखाया है । आत्मबुद्धं कायादी ग्रह्यो । बहीरात्मा अधरूप सुज्ञानी । कायादिकनो हो साखी घर । रह्यो अन्तर आतमरूप सुज्ञानी ॥ ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो । वरजित सकल उपाधि ॥ अतीन्द्रिय गुण गुण मणी आगरुं, हम परमातम साथ सुज्ञानी || यह तो हुआ जैन फिलोसॉफी का भव्यरूप | अब उसकी अन्य विशेषताओं पर " प्रकाश डाला जायगा । 46 संयम और जैन दर्शन का सम्बन्ध मनुष्य और हवा ( oxygen) की तरह है । संयम क्या ? यह प्रश्न उठता है । इन्द्रियों का निग्रह करना ही संयम कहलाता है। प्रत्येक जैनी को “पंचिदीयसंवरणो " सूत्र तो कंठस्थ ही होगा । स्पेर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, चक्षिन्द्रिय और श्रोतेन्द्रिय इन पांचों इन्द्रियों का ज्ञान और विषय हमारे जैन शास्त्र में दिखाया गया है । इन पांचों इन्द्रियों पर काबू करना, निग्रह करना या जीतना ही संयम कहलाता है। एक कवि उपमा देता है कि जीवरूपी साथी इन्द्रियरूपी अश्व को कब्जे मैं नहीं रख सकता तो उसका परिणाम दुःखदायक होता है, किसी भी प्रकार के अर्थ की
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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