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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ जिन, जैनागम समय के प्रवाह से यह मत बहुत फैलता गया। पर संघ का नेता जैसा विद्वान् और कुशल होना चाहिए था, न होने के कारण अल्प काल में ही कई विभिन्न मतों की सृष्टि तो गयी । लगभग १०० वर्ष के अन्दर ही लंका मत की १३ शाखाएं हो गयीं और सं० १६१३-२९ के बीच सैंकड़ों की संख्या में लुका मत के साधु मूर्तिपूजक साधु-संघ में आ कर सम्मिलित हो गए। उनकी तेरह शाखाओं में चार विशेष रूप से प्रसिद्ध हो गयीं जिनके अनुयायी आज भी विद्यमान हैं। पर वे सभी मूर्तिपूजा का विरोध त्यागकर पूर्ण समर्थक बन गये हैं। वास्तव में मानव स्वभाव ही मूर्तिपूजा का समर्थक है। अमूर्त भावों को विशिष्ट व्यक्ति ही ग्रहण कर सकते हैं। मूर्ति या रूप तो सब के लिए प्रभावोत्पादक या आकर्षक है। अच्छी या बुरी जिस चीज के सम्पर्क में हम आते हैं, निमित्तवासी आत्मा होने से उस पर तदनुरूप प्रभाव पड़ता ही है। इसलिए कबीर आदि प्रायः सभी मूर्ति विरोधी संप्रदाय अंत में मूर्ति को मान्य करने लगे । लौं कामत की चार प्रधान शाखाएं हैं। उनमें नागौरी लौंका की दो गहियें बीकानेर में हैं, दूसरा गुजराती लौंकागच्छ है जिसकी गद्दी बड़ौदा व एक अन्य स्थान में है। तीसरा उत्तराधगच्छ जो पंजाब या उत्तर प्रदेश में प्रचारित हुआ। इनकी परम्परा के संबन्ध में हमारा एक लेख प्रकाशित हो चुका है। चतुर्थ बीजामत या विजयगच्छ है जिसके श्रीपूज्य कोटा में हैं। इन चारों शाखाओं की मान्यताओं में क्या अन्तर है ? यह जानने के साधन अभी प्राप्त नहीं हुए। केवल नागौरी लुकागच्छ के समाचारी सम्बन्धी एक ग्रन्थ बीकानेर के बड़े ज्ञानभण्डार में देखा गया है । इस गच्छ का प्रभाव अजीमगंज आदि में भी रहा और इस गच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तिये व पादुकाएं आदि भी कई स्थानों में प्राप्त हैं। ___ ब्रह्मर्षि के प्राप्त ग्रन्थ में लौंकाशाह के कुछ समय पश्चात् ही पारखमती और नए लौंकों में जो मतभेद हुआ उसके कुछ सूत्र प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार पारखमती तो दयाधर्म को प्रधानता देता था, इसलिए साधुओं का नदी पार होना आदि हिंसा होनेवाले कार्य अमान्य करता था। पर नये लौं कामती शास्त्राज्ञा होने के कारण केवल दया धर्म को आगे कर जिनाज्ञा को प्रधानता न देने में अनौचित्य समझते थे । इसी प्रकार कई अन्य मान्यताओं में भी पुराने पारखमती लुका और नये लुंकानुयायिओं में मतभेद था। लौंकामतानुयायी पहले ४५ आगम मूलरूप से मानते थे। सं. १५४० के लिखे हुए मतपत्र की नकल हमारे संग्रह में है । उसमें लुंकानुयायी पासा आदिने अपने हस्ताक्षरों से यह स्वीकार किया है कि ४५ आगमों में मूर्तिपूजा का पाठ दिखाने पर हमें मान्य होगा। उसके ऊपर ४५ आगमों के नाम व उनकी श्लोकसंख्या लिखी हुई है, पर पीछे से जव मूर्ति
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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