SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लुकाशाह और उनके अनुयायी भंवरलाल नाहटा सोलहवीं शताब्दी भारत का एक विशिष्ट संक्रान्तिकाल है। या ता मुसलमाना क आक्रमण मुहम्मद गौरी से प्रारंभ होकर अलाउद्दीन खिलजी के समय तक बड़े क्रूर रहे । भारतीय देवालयों पर जबरदस्त प्रहार हुआ। जनता पर भी अमानवीय कृत्य हुए। इनसे जनजीवन त्रस्त हो उठा। एक ओर धार्मिकता पर आघात, दूसरी ओर आजीविका और धनसंपत्ति पर । धर्म और धन मनुष्य के लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय होते हैं। धन को ग्यारइवां प्राण कहा गया है और धर्म तो सर्वस्व है ही। फलतः अलाउद्दीन के बाद जब थोड़ी शांति प्राप्त हुई तो ध्वस्त मन्दिरों का जीर्णोद्धार और नवीन निर्माण का कार्य जोर-शोर से आगे बढ़ा । तेरहवीं, चौदहवीं शती की भी बहुत धातुपतिमाएं मिलती हैं, पर प्रन्द्रहवीं व सोलहवीं में तो उनकी संख्या और भी बढ़ जाती है । ज्ञानभण्डारों की सुरक्षा के प्रति जाग. रुकता और नवीन भण्डारों की स्थापना इस युग की उल्लेखनीय घटना है, जब कि मुसलमानों द्वारा विध्वंस-कार्य जोरों पर था। बहुतसी मूर्तियों व प्रतियों को भूमिगृह और प्रच्छन्न स्थानों में सुरक्षा के लिए रख दिया गया था। प्रन्द्रहवीं के उत्तरार्द्ध में जब थोड़ा शांत वातावरण देखा गया तो उन पुस्तकों को सुरक्षित स्थानों में स्थानान्तरित किया गया एवं बहुतसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों की प्रतिलिपियां ताड़पत्र व कागज पर खरतरगच्छाचार्य जिनभद्रसूरि और तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि आदिने श्रावकों के सहयोग से अच्छे लहियों से करवायीं । लुंकाशाह का पूर्वजीवन भी ऐसे ही एक प्राचीन शास्त्रों की प्रतिलिपि करनेवाले लहिए के रूप में भालेखित मिलता है। सं. १४७५ में उनका जन्म हुआ, उनकी जाति व स्थान के सम्बन्ध में विविध मत हैं। सोलहवीं शताब्दी में मूर्तिपूजा के विरोधी अनेक व्यक्ति हुए। मुसलमान तो मूर्तिपूजा के विरोधी थे ही। भारत में अनेक हिन्दू व जैन देवालयों का विध्वंस कर उन्होंने जनता की परम्परागत श्रद्धा पर प्रबल आघात किया। उसीका परिणाम हुआ कि भारत के विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों में कुछ ऐसे व्यक्ति निकले जिन्होंने मूर्तिपूजा का विरोध ही अपने जीवन का ध्येय बना लिया। महात्मा कबीर, श्वेताम्बर जैनों में लुंका, दिगम्बरों में तारणस्वामी इस मूर्तिपूजा विरोधी मत के अगुआ या नेता बने । लुकाशाह की अपनी निजी कोई (६०)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy