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________________ ४६८ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैनागम का तरतमभाव एवं प्राणी की प्रवृत्ति-निवृत्ति है; जबकि मार्गणाओं का आधार प्राणी की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विभिन्नताएं हैं। मार्गणाएं जीव के विकास की सूचक नहीं हैं; अपितु उसके स्वाभाविक-वैभाविक रूपों का पृथक्करण मात्र हैं-जबकि गुणस्थानों में जीव के विकास की क्रमिक अवस्थाओं का विचार किया जाता हैं । इस प्रकार मार्गणाओं का आधार प्राणियों की विविधताओं का साधारण वर्गीकरण है जबकि गुणस्थानों का आधार जीवों का आध्यात्मिक विकास-क्रम है । प्रस्तुत कर्मग्रंथ की गाथा-संख्या २४ है । षडशीति प्रस्तुत ग्रंथ को 'षडशीति ' इस लिए कहते हैं कि इसमें ८६ गाथाएं हैं। इसका एक नाम 'सूक्ष्मार्थ-विचार' भी है और वह इसलिए कि ग्रंथकारने ग्रंथ के अन्त में 'सुहुमत्थावियारो' (सूक्ष्मार्थविचारः ) शब्द का उल्लेख किया है। इस ग्रंथ में मुख्यतया तीन विषयों की चर्चा है, जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान । जीवस्थान में गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन आठ विषयों का वर्णन किया गया है । मार्गणास्थान में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प-बहुत्व इन छः विषयों का वर्णन है । गुणस्थान में जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बंधहेतु, बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अस्प-बहुत्व इन दस विषयों का समावेश किया गया है। अन्त में भाव तथा संख्या का स्वरूप भी बताया गया है। जीवस्थान के वर्णन से यह मालूम होता है कि जीव किन किन अवस्थाओं में भ्रमण करता है। मार्गणास्थान के वर्णन से यह विदित होता है कि जीव के कर्मकृत व स्वाभाविक कितने भेद हैं । गुणस्थान के परिज्ञान से आत्मा की उत्तरोतर उन्नति का आभास होता है । इस जीवस्थान, मार्गणास्थान एवं गुणस्थान के ज्ञान से मात्मा का स्वरूप एवं कर्मजन्यरूप जाना जा सकता है। शतक शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में १०० गाथाएं हैं। यही कारण है कि इस का नाम शतक रखा गया है । इस में सर्व प्रथम बताया गया है कि प्रथम कर्मग्रंथ में वर्णित प्रकृतियों में से कौन कौन प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्वघाती, देशघाती, अघाती, पुण्यधर्मा, पापधर्मा, परावर्तमाना और अपरावर्तमाना हैं । तदनन्तर इस बात का विचार किया गया है कि इन्हीं प्रकृतियों में से कौन कौन प्रकृतियां क्षेत्रनिपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी एवं पुद्गलविपाकी हैं। इस के बाद ग्रंथकारने प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध (रसबन्ध ) एवं प्रदेशबन्ध इन चार प्रकार
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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