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________________ ४५६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ जिन, जैमागम इधर मा रुद्रसोमाने पुत्र के वियोग में अत्यधिक सन्तप्त हो आर्यरक्षित को बुलाने के लिये अपने द्वितीय पुत्र फल्गुरक्षित को उनके समीप भेजा। फरगुरक्षितने अपनी माता का सन्देश सुनाते हुए आर्यरक्षित से कहा "सोऽभ्यधाभ्रातरागच्छ, व्रतार्थी ते जनोऽखिलः।" " हे भाई ! आओ ! पूरा परिवार तुम्हें देखने को उत्सुक है । " " स ऊचे सत्यमेतचेत् , तत्वमादौ परिव्रज!" " यदि यह सत्य है फल्गुरक्षित! तो सर्वप्रथम तुम भी दीक्षा लेकर विद्याध्ययन करो। सम्पूर्ण विद्याओं के साथ समग्र जैनदर्शन का अध्ययन कर हम दोनों एक साथ ही पूरे परिवार एवं माताजी से मिलने चलेंगे।" आर्यरक्षितने प्रसन्न होकर फल्गुरक्षित से कहा। फल्गुरक्षितने विचार कर अपने अग्रज की बात मानली एवं दीक्षा लेकर उन्हीं के समीप में विद्याध्ययन करने लगे। ___ एक दिन अध्ययन करते करते आयरक्षित विचारमग्न हो सोचने लगा एवं गुरु वज्रस्वामी से पूछा--- “यविकैर्णितोऽप्राक्षीत् , शेषमस्य कियत्प्रभो !" " गुरुदेव ! दशमपूर्व की यविकाओं का तो मैं अध्ययन प्रायः समाप्त कर चूका हूँअब कितना अध्ययन और शेष है !" ____ " यह पूछना अभी उचित नहीं आयरक्षित ! अभी कुछ और पढ़ो ! " आर्य वज्रस्वामीने उत्तर देते हुए गम्भीरतापूर्वक कहा । कुछ दिन और इसी प्रकार गहन अध्ययन में व्यतीत होने के पश्चात् पुनः आर्यरक्षितने गुरुदेव से वही प्रश्न किया। वज्रस्वामीने तत्काल प्रत्युत्तर देते हुए कहा कि " स्वाम्यूचे सर्षपं मेरोविन्दुमब्धेस्त्वमग्रहीः।" "आर्यरक्षित ! अभी तुमने मेरु के सरसों जितना और समुद्र में बिंदु जितना अध्ययन किया है। इसप्रकार अपार एवं गहनतम विषय में से अभी एक ही चरण लिया है, अमी अनन्त अनंत शेष है !" बज्रस्वामी का उक्त कथन सुनकर आर्यरक्षित नत शिर हो पुनः ज्ञान की साधना एवं तस्व की आराधना में लग गये।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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