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________________ श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली पं. श्रीकैलाशचन्द्र शास्त्री अखण्ड जैन परम्परा के अन्तिम श्रुतधर श्रुतकेवली भद्रबाहु ही एक ऐसे महापुरुष हैं जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर अपनी पूर्ण श्रद्धा और भक्ति के साथ मानते हैं। यो तो अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के पश्चात् से ही दोनों सम्प्रदायों की गुर्वावलियां भिन्न-भिन्न होजाती हैं, किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहुरूपी संगम पर आकर गंगा जमुना की तरह वे पुनः मिल जाती हैं। गंगा जमुना तो प्रयाग में मिलकर फिर कभी जुदी नहीं हो सकी, किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के अवसान के साथ ही अखण्ड जैन परम्परा का तो सदा के लिये अवसान होजाता है और उनके पश्चात् जैन परम्परा स्थायीरूप से दो स्रोतों में प्रवाहित होने लगती है । और फिर उनके जीवन में श्रुतकेवली भद्रवाहु जैसा कोई संगमस्थल श्रुतधर अवतरित नहीं हुआ। ___अतः श्रुतकेवली भद्रबाहु दोनों सम्प्रदायों के अन्तिम संगमरूप पवित्र तीर्थभूमि हैं। इस लेख के द्वारा हम दोनों सम्प्रदायों के साहित्य के आधार पर उसी तीर्थमि का किश्चित् दर्शन कराना चाहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में कल्पसूत्र, आवश्यक सूत्र और नन्दिसूत्र की स्थविरावलियों में श्री धर्मघोषसूरि के ऋषिमण्डलसूत्र तथा इनकी अर्वाचीन टीकाओं से और श्री हेमचन्द्रसूरिजी के परिशिष्ट पर्व से भद्रबाहुस्वामी के सम्बन्ध में कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है । स्थविरावलियों के अनुसार श्री भद्रबाहु श्री यशोभद्रसूरिजी के शिष्य थे । तथा कल्प. सूत्र की विस्तृत स्थविरावली के अनुसार भद्रबाहु के चार शिष्य थे, किन्तु भद्रबाहु की शिष्य-परम्परा उनसे आगे नहीं चल सकी, वे चारों ही स्वर्गवासी होगये । अतः श्वेताम्बरों में १. स्थविरावली में जब भद्रबाहु के चार शिष्यों से चार शाखाएँ निकलीं और उनके नाम मिलते है तो शिष्यपरम्परा आगे नहीं चल सकी, यह लिखना ठीक नहीं ज्ञाता होता। शाखा निकलने का मतलब ही यह है कि उनकी परम्परा आगे चली। हां, कब तक चली, यह नहीं कहा जा सकता। स्थविरावली का उद्देश्य गण, कुल, शाखा का निर्देश कर देना ही है । अन्त तक की समस्त परम्पर। बतलाने का नहीं, न यह सम्भव ही था। क्योंकि भगवान महावीर के १ हजार वर्षों में तो हजारों की संख्या में जैन मुनि हुए और अनेक गण आदि निकले, उनमें बहुत से दीर्घकाल तक भी चले होंगे। उन सब की दीर्घ परम्परा की मुनियों की नामावली देना तो बहुत बड़े ग्रन्थ का काम है। भद्रबाह के आगे स्थूलभद्र की परम्परा चलने से मतलब यही है कि युगप्रधान पट्टपरम्परा में वे ही आये। संपा. श्री नाहटाजी.
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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