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________________ ४२२ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ जिन, जैनागम का दिवस है ! ऐसा लगता है जैसे जीवन सफलता की सीमा पर आ गया है। काँच की राशि में खोया हुआ चिन्तामणि मिला । उनकी मुराद पूरी हुई। आज मैं सम्पूर्ण महत्वाकाक्षाओं से परे हूं और वासना के जल से कमल के फूल की भाँति ऊपर उठ गया हूं । प्रतीत होता है आज से पहले जो कुछ भी किया वह भ्रम भले न हो, पर सत्य भी न था; बल्कि अन्धकार और प्रकाश का एक अद्भुत सम्मिश्रण था । वस्तुतः परमनिधि तो मुझे आज मिली है। आज मुझे अपनी आत्मा में अन्तर्निहित पूर्णत्व एवं सर्वज्ञत्व की उपलब्धि हुई है । ' ( ' बरसों की साधना के बाद आज ज्ञान के सिन्धु में शंका की तरंगे नहीं उठ रही हैं। मेरे मानसने प्रशान्त महासागर सदृश विमल प्रभा प्राप्त करली है । मेरा कर्मरूपी कुलाल प्रायः सभी विपाक निर्मित पात्र उतारने को उद्यत हो रहा है । प्रमुख घातिया पात्रों को तो वह उतार ही चुका, अब तो केवल कहने भर के अघातिया पात्र रह गये हैं जिनका उतारना बांये हाथ का खेल है, पर मैं अभी तरण ही बना हूं, तारण बनना शेष है । मुझे केवल अपना ही कल्याण नहीं करना; बल्कि दूसरों का भी; तब ही तो साधना पूर्ण कही जावेगी, अन्यथा तो स्वार्थ-सिद्धि कहलावेगी । और कुछ काल बाद मैं वह भी पा सकूंगा जो अभी तक पाया नहीं और जिसे पाने के लिये जीवन पर्यन्त प्रयत्न किया है । तीर्थंङ्कर का तीर्थंकरत्व 1 तीर्थंकर के तीर्थंकरत्व की पूर्णता का प्रारम्भ पूर्ण ज्ञानी होने के बाद ही होता है तीर्थंकर के प्राप्त पूर्णज्ञान अथवा केवलज्ञान की सीमा अक्षुण्ण और अखण्ड तथा अनन्त होती है । इस ज्ञान के द्वारा वह संसार के सचेतन और अचेतन अनन्तान्त पदार्थों और जीवों की अनन्तान्त अवस्थायें एक क्षण मात्र में हथेली पर रखे हुये आंवले की भांति, हाथ की रेखाओं की भांति स्पष्टतया सुविशद रीति से जान लेता है। तीर्थंकर कर्म - चक्रवर्ती की भांति धर्मचक्रवर्ती बनता है । ' और जे कम्भे सूरा ते धम्मे सूरा' का प्रतीक होता है । इसी अवसर पर तीर्थंकर प्राप्त ज्ञानके लाभके वितरण का निश्चय करता है और बहुजनहिताय बहुजनसुखाय यत्रतत्र विहार भी करता है । पुण्यस्थल समवसरण में वह जीवमात्र को सुखद हित- मित- प्रिय वचन - संयुक्त स्वर्णोपदेश देता है । धर्मोपदेश देने जब विहार ( गमन) करता है तो धर्मचक्र साथ में रहता है और देवता उसके पैरों के नीचे स्वर्ण-कमलों की सृष्टि करते चलते हैं । - तीर्थंकर अनायों को भी आर्य बनाता है और आर्यों को आत्मज्ञान देता है । पूजक से पूज्य बनने के लिये कहता है और लौकिक सुख के स्थान में अलौकिक सुख के लिये प्रेरणा
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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