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भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और ३ आसन-योग का तृतीय अंग है आसन है। पातंजलयोगदर्शन में स्थिर और सुख . प्रद बैठने के विशेष प्रकार को आसन कहा गया है। योग के साधक को योगमार्ग में प्रवर्तभान होने पर ध्यानार्थ आसन-साधना की महती आवश्यकता रहती है । छः प्रकार के बाह्य तपों के अधिकार में पांचवें नम्बर के कायक्लेश तप में आसनों का वर्णन भी किया गया है। जैसे कि-भद्रासन, सुखासन, गोदोहासन, उत्कटिकासन, कमलासन, बजासन, दंडासन तथा कायोत्सर्ग और मुद्रादि आसनों का शास्त्रकारोंने शास्त्रों में संसूचन किया है । श्रीउत्तराध्ययन सूत्र में भी वीरासनादि का उल्लेख है।"
___ आसनों के अभ्यास से चंचल चित्त नियंत्रित हो कर एकाग्रता की ओर बढ़ता है । यहाँ यह भी स्मरण रखना नितान्तावश्यक है कि जो आसन शरीर में किसी प्रकार की अशान्ति और आत्मा में व्यग्रता न पैदा कर साधक-व्यक्ति को ध्यान-समाधि में प्रसन्नता. पूर्वक एकाग्रता प्रदान करे वही आसन करना चाहिये, अन्य नहीं। ___स्व-परोन्नतिकर प्रत्येक सम्यगनुष्ठान में प्रवर्तमान होने के लिये सर्वप्रथम आसन. सिद्धि होना ही चाहिये । क्यों कि साधना करनेवाले को सर्वप्रथम दृढ़ासनी होना नितान्त आवश्यक है। व्याख्यान, प्रतिक्रमण आदि में एक आसन से छः घंटों बैठने पर भी चित्त समाधि में ही रहता है और किसी प्रकार की विकृति पैदा नहीं होना आसनसिद्धि पर ही अवलम्बित है।
४ प्राणायाम-प्राणायाम यह योग का चतुर्थ अंग है । पातंजलयोगदर्शन में कहा गया है कि ' ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्' याने प्राणायाम के अभ्यास से विवेकज्ञान को आवरणित करनेवाले दोषों-कर्मों का क्षय हो कर चित्त स्थिरता और एकाग्रता प्राप्त करने की योग्यता पा सकता है। श्वासोश्वास की गति को रोकना प्राणायाम है। और वह रेचक, पूरक और कुम्भक त्रिभेदवाला है । तथा प्रत्याहार, शान्त, उत्तर और अधर आदि चार को उक्त तीन के साथ संमिलित करने पर प्राणायाम सप्तभेदीय हो जाता है ।
(१) स्वास को घ्राणेन्द्रिय से बाहर फेंकना । रेचक ' प्राणायाम है।
१६ स्थिरसुखमासनम् ॥ २-४६ योगदर्शन ।
१७ " से किं तं कायकिलेसे? अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-ठाणद्वितिए, उक्कुडयासणिए पडियट्ठाई वीरासणीए नेसज्जिए दंडायए लउड़साए आयावये अवाउड़ए अकंडुअए अणिट्ठहए सव्वगायपरिकम्मविभूस. विप्पमुक्के से तं कायकिलेसे "॥ (श्रीउववाइय सूत्र बाह्यतपाधिकार ) १८ ठाणावीरासणाईया जीवस्स उ महावहा ।
उग्गा जहा धरिजति कायकिलेसं तमाहिये ॥२७॥ (श्रीमदुत्तराध्ययन सूत्र-तपोमार्गाध्ययन ३०)