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________________ संस्कृति ३८१ पूर्वेशिया में भारतीय संस्कृति । को चीनी में लिखने की पद्धति का आविष्कार किया गया। इस आविष्कार के लिए चीन आज तक भारत का ऋणी है। ___ आगे चलने से पूर्व मैं आप को कश्मीर-निवासी ब्राह्मण बुद्धयशस् और उसके सर्वेतिहास विख्यात शिष्य कुमारजीव का परिचय करा देता हूँ। कुमारजीव का इतिहास विचित्र है । चीन के सम्राट् ने कूचा के राजा के पास कुमारजीव को मांगने के लिए अपने दूत भेजे। कूचा में कुमारजीवने अपने जीवन के ३० वर्ष व्यतीत किए थे। उसने कुमारजीव को देने से नकार किया। चीन के राजदूत सेनापति लू कुआंगने युद्ध की घोषणा की । कूचाने कारागार और ओख तुफूनि के मित्र राज्यों से सहायता की प्रार्थना की । घमासान युद्ध हुआ। कूचा और उसके साथी हार गए । कुमारजीव को बन्दी बना कर चीन में लाया गया। इस अन्तराल में चीन के सम्राट् का देहान्त हो गया । और अभिमानी सेनापति लू कुआंग ने कांसु प्रान्त में अपना स्वतन्त्र राज्य प्रतिष्ठापित किया। इस राज्य का दीपरत्न कुमारजीव था। पन्द्रह वर्ष की अवधि तक अर्थात् ४५८ विक्रमाब्द तक कुमारजीव यहां रहा । तत्पश्चात् कुमारजीव चीन की मुख्य राजधानी चांगान में लाया गया। इसको राज्यगुरु की पदवी दी गई । कुमारजीव के प्रवचनों के लिए विशाल भवन निर्माण किया गया, जिसमें तीन सहस्र शिष्य प्रतिदिन उनका प्रवचन सुनते थे। कुमारजीव के पिता भारतीय कुमारायण थे और इनकी माता कूचा के महाराज की बहिन जीवा थी। कुमारजीव संस्कृत और चीनी के अद्वितीय पण्डित थे। कुमारजीव के जीवन का आदर्श चीनियों को सच्चे धर्म का ज्ञान कराना था। अभी तक जो संस्कृत ग्रन्थों के अनुवाद चीनी में हुए थे, वे विचार और भाषा की शुद्धता में मूल संस्कृत की कोटि तक न पहुंचते थे । सो कुमारजीवने पुराने अनुवादों का संशोधन और नये अनूदित ग्रन्थों का भाषान्तरण अपने हाथ में लिया। इस बृहत् कार्य में आठ सौ विद्वानों की सेना कुमारजीव को दी गई । इनमें भारतीय और चीनी सम्मिलित थे। कुमारजीवने अपने जीवन के अन्तिम बारह वर्ष इस कार्य को अर्पण किए। भारत और उत्तर देशों के इतिहास में कुमारजीव का नाम सर्वप्रथम रहेगा। कुमार. जीवने केवल ग्रन्थों का ही अनुवाद नहीं किया, किन्तु माध्यमिक और योगाचार के सिद्धान्तों को भी चीन में प्रवेश कराया। कुमारजीवने महायान के संस्थापक अश्वघोष की जीवनी लिखी । यह अभी तक चीनी भाषा में विद्यमान है। नागार्जुन के अत्यन्त शून्यतावाद पर कुमारजीव के ग्रन्थ अनुपम हैं। हमारे पूर्वपुरुषों का चीन में धर्मप्रचार का इतिहास अति विशाल है। विक्रम की ११
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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