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________________ ३७२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और धर्म में रूपान्तर ही हो गया है। भैरव आदि ऐसे भी पौराणिक धर्म के अनेकानेक देवता हैं, जिनका वैदिक धर्म में कोई स्थान नहीं है। पौराणिक देव-पूजा-पद्धति भी वैदिक पूजा-पद्धति से नितरां मिन है । पौराणिक कर्मकाण्ड में धूप, दीप, पुष्प, फल, पान सुपारी आदि की पदे-पदे आवश्यकता होती है । वैदिक कर्मकाण्ड में इनका अभाव ही है। वैदिक धर्म से प्रचलित पौराणिक धर्म के इस महान् परिवर्तन को हम वैदिक तथा वैदिकेतर ( या प्राग्वैदिक ) परम्पराओं के एक प्रकार के समन्वय से ही समझ सकते हैं। इसी प्रकार हमारी संस्कृति की परम्परा में विचार-धाराओं के कुछ ऐसे परस्परविरोधी द्वन्द्व हैं, जिनको हम वैदिक और वैदिकेतर धाराओं के साहाय्य के बिना नहीं समझ सकते । ऐसे ही कुछ द्वन्द्वों का संकेत हम नीचे करते हैं: १. कर्म और संन्यास २. संसार और जीवन का उद्देश्य हमारा उतरोत्तर विकास है । उत्तरोत्तर विकास का ही नाम अमृतत्व है । यही निःश्रेयस है। इसके स्थान मेंसंसार और जीवन दुःखमय हैं । अत एव हेय हैं । इनसे मोक्ष या छूटकारा पाना ही हमारा ध्येय होना चाहिए। ३. ज्योतिर्मय लोकों की प्रार्थनी और नरकों का निरन्तर भय । इन द्वन्द्वों में पहला पक्ष स्पष्टतया वैदिक संस्कृति के आधार पर है। दूसरे पक्ष का आधार, हमारी समझ में, वैदिकेतर ही होना चाहिए। . हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि भारतवर्ष की प्राचीनतर वैदिकेतर संस्कृतियों में ही दूसरे पक्षों की जड़ होनी चाहिए। ऊपर संन्यासादि आश्रमों की उत्पत्ति के विषय में जो बौधायन धर्मसूत्र का मत हमने दिया है, उससे भी यही सिद्ध होता है। ऐसा होने पर भी हमारे देश के अध्यात्म-शास्त्र तथा दर्शन-शास्त्र का आधार ये ही द्वितीय पक्ष की धारणाएं हैं। १ तुलना कीजिए: --उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् । ( यजु० २०।२१) तमसो मा ज्योतिर्गमय । इत्यादि । २ नरक ' शब्द ऋग्वेद संहिता, शुक्र यजुर्वेद वा० संहिता, तथा सामवेद संहिता में एक बार भी नहीं आया है। अथर्ववेद संहिता में केवल एक बार प्रयुक्त हुआ है।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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