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संस्कृति सृष्टिकर्ता ईश्वर नहीं।
३६१ फैल जाता है तब ईश्वर जन्म धारण कर के उस अन्याय और अत्याचार को नेशनाबूद करता है । मनुस्मृति में भी कहा है किः
___ साभिध्याय शरीरात्स्वात् , सिमृक्षु विविधा प्रजाः।
अप एवं ससर्जादौ, तासु बीजमवासृजत् ॥ अर्थात् विविध प्रकार की प्रजा को उत्पन्न करनेवाले ईश्वरने प्रथम अपने शरीर से ध्यान किया, जिस से पानी की उत्पत्ति हुई और उसमें बीजारोपण किया। उससे अंडा उत्पन्न हुआ। अंडे से ब्रह्माजी पैदा हुए और एक वर्ष पर्यंत भगवान् अंडे में रहे। फिर स्वयं ब्रह्माजीने ध्यान किया । ध्यान करके अंडे के दो विभाग किये। एक विभाग का स्वर्ग और दूसरे विभाग की पृथ्वी बनी और जो मध्यभाग था वहां आकाश हुआ।
यहाँ पर यह शंका होती है कि ईश्वरने जल की उत्पत्ति शरीर के ध्यान से की तो जल को कहाँ रक्खा ! क्योंकि आधार के विना आधेय का रहना असंभव है और ईश्वर को शरीर ही नहीं तो ईश्वरने शरीर से ध्यान कैसे किया ! और भी कहा है किः
द्विधा कृत्वात्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ।
अर्धन नारी तस्यां स विराजमसृजत् प्रभुः ।। अर्थात् ईश्वरने अपने शरीर के दो विभाग किये । आधे शरीर से पुरुष की उत्पत्ति हुई और आधे से स्त्री की। सारांश यह है कि हम ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मान लें तो ईश्वर का ईश्वर नाम निरर्थक कहलायगा; क्योंकि ईश्वर को अजर, अमर, निरागी, निष्का लंकी, अशरीरी आदि शब्दों से संबोधित करते हैं। कहा भी है कि, " क्लेश-कर्म विपाकाशयरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः " अर्थात् क्लेश और कर्म जिसको नहीं हैं वही ईश्वर है । इसलिये जब ईश्वर अवतार धारण करेगा तो उसको राग, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध, मान, माया, लोभ और जन्म-मरण सहित एवं शरीरी मानना पडेगा, जिसमें उपरोक कही हुई बातें होंगी। वह ईश्वर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि-" यत्र यत्र शरीरपरिग्रहस्तत्र तत्र दुःखम् " जहाँ जहाँ शरीर धारण करना पड़ता है वहाँ दुःख है। अब यहाँ पर शंका और होती है कि जब ईश्वरने सृष्टि की रचना की तो वह शरीर धारण करके की अथवा विना शरीर के । यदि कहें कि सशरीरी होकर की तो वह शरीर हमें क्यों नहीं दिखता ! अर्थात् दिखना चाहिये, क्यों कि दूसरी वस्तुओं का हम उदाहरण देते हैं कि ये सभी वस्तुएं बुद्धिमान की बनाई हुई हैं और वे हमें दिख रही हैं। यदि कहें कि भगवान् का शरीर हमें नहीं दिख