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________________ ३५४ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रय दर्शन और भाव को हम देखते हैं । किन्तु सब गतियों की समष्टि का नाम स्थिति है । जिस पदार्थ पर सब ओर से वेग और गतियां केन्द्रित होती हैं वह स्थितिभावापन्न हो जाता है । इसी प्रकार एक-एक वर्ण का अपना-अपना रूप है; किन्तु सब वर्गों की समष्टि स्वयं अवर्ण या रूपहीन हो जाती है । सूर्य की रश्मियों के पृथक् पृथक् वर्ण हैं, पर उनकी समष्टि का वर्ण श्वेत होता है । इस प्रकार विश्व के सब रूप जिस एक बिन्दु में केन्द्रित होते हैं, वह मूल सब का प्रतिरूप है । उसे अल्प या रूपशून्य कह सकते हैं। जो शून्य है उसीकी संज्ञा वन है। रूप या नकल विकृत हो सकती है, वह बिगड़ती रहती है । रखनेवाले के मन, प्राण और वाक् की शक्ति के अनुसार उसका नाश या विकार होता है, किन्तु इस विश्व में जो एक अचिन्त्य अप्रतयं प्रतिरूप है वह वज्र की भांति दृढ़ है। जिसे अन्य कोई वस्तु पराभूत न कर सके वही वज्र कहा जाता है। वही प्रतिरूप वज्र है; क्यों कि वह देश और काल से पराभूत नहीं होता। वह अमूर्त है। उसीका एक अंश रूप या नकल में आ पाता है । सब रूपों से कई अधिक महान् अप्रघृष्य वह प्रतिरूप या मूल प्रजापति है जिसके विषय में कहा जाता है-' वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः ।' वह असल किसी नकल से दबता नहीं। वह सबके ऊपर, सब से ठाढ़ा, सब का विधायक, स्वयं अमिट ध्रुव सत्तावाला, ऊंचे वृक्ष की भांति समस्त अन्तराल को अपने वितान से घेर कर खड़ा है । वह स्वयं सिद्ध है और सर्वप्रत्यक्ष है । विश्व का कोई भाग या कोई रूप उसके वितान से बचा नहीं । वह प्रतिरूप अन्तर्यामी और सूत्रात्मा इन दो रूपों से सब रूपों में आता है । उसका जो अव्यक्त अमृत भाग है वह प्रत्येक पिंड पदार्थ या रूप में प्रविष्ट अन्तर्यामी अंश है । उसका जो मूर्त वा व्यक्त भाग है वही प्रत्यक्ष पिंड का सूत्रात्मा है । एक सूक्ष्म है, दूसरा स्थूल । एक को अन्तः स्थिति और दूसरे को बाह्यस्थिति कहा जाता है। प्रत्येक रूप का स्थूल उपादान जगत् के आदि कारण उसी प्रतिरूप से आया है और उसका सूक्ष्म भाग भी वहीं से आता है। प्रतिरूप से रूप भाव में आने के लिये सूक्ष्म और स्थूल ये दो धागे हैं । विश्व के जितने रूप हैं सबमें ये पिरोये हुए हैं । यही सब रूपों की एकतानता है। सृष्टि के आदि से नाना प्रकार के पुष्प, लता, वृक्ष, वनस्पति आदि उत्पन्न होते रहे हैं और हो रहे हैं। उनमें जो सादृश्य है उसका कारण यह है कि देश और काल का व्यवधान होने पर भी उन सब में एक ही अन्तर्यामी और एक ही सूत्रात्मा पिरोया हुआ है अर्थात् जो मूलभूत प्रतिरूप है उससे निर्गत सूक्ष्म और स्थूल के नियम सर्वत्र सब काल में एक समान रहे हैं। वैदिक परिभाषा में केन्द्र बिन्दु को हृदय कहते हैं । जो हृदय है वही प्रजापति कहा
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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