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________________ ३४० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक -ग्रंथ दर्शन और अवस्था में बाह्य वस्तु का ग्रहण नहीं होता और वहां घट-पट आदि की व्यवस्था नहीं रहती । इस अवस्था को 'दर्शन' भी कहा जाता है । यह ज्ञान तथा दर्शन आत्मा का स्वभाव है । इन को आत्मा से पृथक् मानने पर आत्मा का स्वरूप जड़ रह जायगा जो जैन धर्म में मान्य नहीं है । इसी रूप में आत्मा को कर्त्ता माना जाता है। ' मैं देखता हूं, मैं सुनता हूं ' इत्यादि प्रतीति प्रत्येक पुरुष को होती है, अतः आत्मा का कर्तृत्व अनुभवसिद्ध है । इसी प्रकार आत्मा सुख, दुःख आदि का भोक्ता भी है । सुख, दुःख आदि की अनुभूति ही भोग है । और अनुभूति चैतन्य से अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं । अनुभूति चेतन का ही स्वभाव है; अतः आत्मा को ही सुख, दुःख आदि का भोक्ता माना जाता है । फलतः जैन धर्म के अनुसार आत्मा चेतन, कर्त्ता तथा भोक्ता स्वीकार किया गया है । सांख्य में आत्मा के ऐसे ही स्वरूप का पता लगता है । यहां आत्मा नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध और नित्यमुक्त माना गया है । नित्य शुद्ध का अभिप्राय है कि सुख, दुःख आदि का भोग करने अथवा राग, द्वेष आदि की अनुभूति दशा में भी आत्मा के अपने स्वच्छ शुद्ध स्वभाव में किसी प्रकार का अन्तर या विकार आदि दोष नहीं आता । लाल रंग गुड़हल फूल ( जपा कुसुम ) की छाया स्वच्छ शुभ्र मणि में पड़ने पर मणि लाल प्रतीत होती है, पर वस्तुतः उस समय भी मणि लाल नहीं है, प्रत्युत स्वच्छ शुभ ही है । यदि ऐसा न हो तो उसमें लाल रंग की छाया की प्रतीति हो ही नहीं सकती । उस अवस्था में भी मणि को स्वच्छ शुभ मानना अनिवार्य है । न केवल मानना, अपितु वास्तविकता ही यह है । इसी प्रकार शुद्ध चेतन आत्मा को प्रकृति के साथ योग में बुद्धि आदि द्वारा सुख-दुःख आदि की समस्त अनुभूतियां होती हैं । अनुभूति ही आत्मा का स्वरूप है और यही प्रमाण है कि इस स्थिति में भी आत्मा अपने शुद्ध चेतन स्वरूप को परित्याग नहीं करता, अन्यथा अनुभूति का होना असंभव है । इसी कारण आत्मा नित्यबुद्ध भी है अर्थात् नित्य चेतनस्वरूप है । उसकी यह अवस्था कभी किसी प्रकार भी विकार अथवा अन्यथा भावको प्राप्त नहीं होती । यह विचार सांख्य के विषय में प्रसिद्ध है कि आत्मा सुख, दुःख आदि का भोक्ता है । पर आचार्यों ने भोक्तृत्व के स्वरूप का विभिन्न रूपों में वर्णन किया है। आत्मा को सुख, दुःखादि का वास्तविक भोग होता है - इस आधार को लेकर प्रतिवादियोंने सांख्य पर यह आक्षेप किये हैं कि इस अवस्था में आत्मा विकारी क्यों नहीं होता । मूल सांख्य में ( चिदबसानो भोगः, सां. सू. १ । ६८ ) यहीं प्रतिपादन किया गया है कि साक्षात् चेतन आत्मा
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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